Karl Marx vs Religion – Is Faith A Trap – Marx Views on Religion & God

अगर आपसे कहा जाए कि आपने सारी उम्र जिस रिलजन जिस मजहब को फॉलो किया है वो सिर्फ एक इल्लुजन है। सिर्फ एक धोखा है। आपकी प्रॉब्लम्स का टेंपरेरी सशन है। आपकी इमेजिनेशन, आपकी मेहरूमियों, आपके कॉम्प्लेक्सेस का रिफ्लेक्शन है। ऐसा सुनके आपको कैसा लगेगा? सोचिए अगर आपकी दुआएं, आपका सुकून, आपका मेंटल पीस और आपकी स्पिरिचुअलिटी का कंट्रोल किसी और के पास आ जाए तो क्या होगा? मजहब जिससे हम गाइडेंस लेते हैं अगर कोई उसे हथियार के तौर पर यूज करे सिर्फ अपने फायदे के लिए और आपके खिलाफ तो आप क्या करेंगे? यह सब सवाल सुनने में अजीबोगरीब और शॉकिंग लगते
हैं ना? लेकिन 19 सेंचुरी में जर्मनी में एक ऐसा फिलॉसफर पैदा हुआ जिसने हमेशा के लिए मजहब को लेके, सोसाइटी को लेके और इकॉनमी को लेके हमारे आइडियाज को बदल के रख दिया। यह वो शख्स था जिसने मजहब के बारे में कहा था दैट इट इज ओपीएम ऑफ द मैसेज। यह आवाम के लिए अफीम का काम करता है। एक ऐसी अफीम जो इंसान को सुकून तो देती है लेकिन उसको उसके ट्रू पोटेंशियल तक पहुंचने से रोकती है। मैं बात कर रहा हूं द ग्रेट कार्ल मार्क्स की। [संगीत] आज की वीडियो में हम बात करेंगे कि कार्ल मार्क्स ने मजहब के बारे में क्या कहा। उसने इसे इकॉनमी और सोसाइटी के साथ कैसे

जोड़ा? और क्यों मजहब को एक ऐसा हथियार कहा जो गरीब और मेहरूम लोगों पर इस्तेमाल होता है। बुकबडी कार्ल मार्क्स एक रेवोल्यूशनरी सोशियोलॉजिस्ट हिस्टोरियन और इकोनॉमिस्ट था। जिसकी पैदाइश हुई जर्मनी में इन द ईयर 1818। उसका ताल्लुक एक मिडिल क्लास फैमिली से था। उसके फादर हाइन्रिक मार्क्स एक जर्मन लॉयर थे जो एनलाइटनमेंट आईडिया से काफी इंस्पायर्ड थे। उसकी जो फैमिली थी ना वो इनिशियली जइश थी लेकिन सोशल और पॉलिटिकल प्रेशर होने की वजह से उन्होंने अपने आप को क्रिश्चियनिटी में कन्वर्ट कर लिया था। ऑलदो उसके जो टीनएज के साल थे ना उसमें उसके ऊपर मजहब का इतना

ज्यादा असर नहीं था। उसके ऊपर ज्यादा असर था एनलाइटनमेंट के आइडियाज का जो इंसान के अंदर रैशनलिटी ऑफ़ थॉट को प्रमोट करती है। लेकिनकि मार्क्स की फैमिली ओरिजिनली जइश थी, यहूदी थी। लिहाजा उसने मुआशरे के अंदर अपने मजहब को लेकर काफी डिस्क्रिमिनेशन और नफरत फेस की। इन एक्सपीरियंसेस ने उसे इस बात को सोचने पर मजबूर कर दिया कि किसी भी मुआशरे में, किसी भी सोसाइटी में मजहब का रिलजन का आखिर रोल क्या होता है। इसी थॉट ने उसके ज़हन के अंदर कुछ ऐसे रेवोल्यूशनरी आइडियाज को पनपना शुरू किया जिसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया। मजहब के

बारे में मार्क्स की गहरी सोच समझने से पहले उसकी लाइफ हिस्ट्री के बारे में जान लेते हैं। 1830 से 1835 तक कार्ल मार्क्स ने त्रियर के हाई स्कूल में तालीम हासिल की। उसका जो स्कूल था ना वो हमेशा पुलिस की सर्वेस में रहता था क्योंकि उन्हें लगता था कि यहां के टीचर्स और स्टूडेंट्स जो है ना लिबरल सोच रखते हैं। अक्टूबर 1835 में मार्क्स यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोर्न में एडमिट हुआ। वहां उसने ह्यूमैनिटी सब्जेक्ट्स लिए जैसे कि ग्रीक और रोमन मिथोलॉजी और हिस्ट्री ऑफ़ आर्ट। स्टूडेंट्स लाइफ में वो एक एक्टिव स्टूडेंट था। वो टैवन क्लब का प्रेसिडेंट भी बना जो

एरिस्टोक्रेटिक स्टूडेंट्स के अगेंस्ट थी। साथ ही उसने पोएट्स क्लब भी जॉइ किया जिसमें पॉलिटिकल एक्टिविस्ट भी शामिल थे। बॉर्न के स्टूडेंट कल्चर में उस वक्त पॉलिटिकल रिबेलियन होना बहुत आम बात थी। बहुत से स्टूडेंट्स इसी वजह से रेस्ट भी होते थे। मार्क्स ने एक साल के बाद बॉर्न को छोड़ दिया और अक्टूबर 1836 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्लिन को ज्वॉइ किया जहां उसने लॉ और फिलॉसफी को पढ़ना शुरू किया। अच्छा बर्लिन में ना कार्ल मार्क्स ने हेगल की फिलॉसफी को पढ़ना शुरू किया। जिसने उसे बहुत परेशान किया। पहले मार्क्स को हेगल की सोच पसंद ना आई। यह बात

दोस्तों याद रखें दैट हेगल इज़ वन ऑफ़ द ग्रेटेस्ट फिलॉसफर्स ऑफ़ ऑल टाइम। इनफैक्ट हेगल की सोच को लेकर ना उसने अपने बाप को खत लिखा कि मैं इस वजह से बीमार हो गया हूं कि मुझे एक ऐसे नजरिए को आइडियलाइज करना पड़ रहा है जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। लेकिन बर्लिन के स्टूडेंट कल्चर में ना हेगेलियन सोच का बहुत इन्फ्लुएंस था। मार्क्स ने वहां डॉक्टर क्लब को ज्वॉइ किया जहां पर लिटरेरी और फिलोसोफिकल मूवमेंट्स चल रही थी। इस क्लब का सबसे बड़ा नाम था ब्रूनो बावर जो एक थियोलॉजी का लेक्चरार था। ब्रूनो बावर ने मजहब के बारे में कुछ ऐसी बातें की जिसने हमेशा के

लिए यूरोप में रिलीजन की बुनियादों को हिला के रख दिया। उसका कहना था कि बाइबल के जो गोस्पल्स है ना वो असल हिस्ट्री नहीं है बल्कि इन सब गोस्पल्स को दरअसल इंसानी इमोशंस और जरूरत के तहत लिखा गया है। यही वो दौर था जब यंग हेगेलियंस नाम का एक ग्रुप भी बना जो आहिस्ता-आहिस्ता एथिज्म की तरफ जा रहा था और पॉलिटिकल एंबिशंस भी रखता था। रशियन हुकूमत को यह डर था कि यह जो यंग हेगेलियंस का रेडिकल इन्फ्लुएंस है ना यह यूनिवर्सिटीज में स्टूडेंट्स को बगावत पर उकसाएगा। इसी वजह से हुकूमत ने उन्हें यूनिवर्सिटी से निकालना शुरू कर दिया। ब्रूनो बावर जो

मार्क्स का दोस्त और टीचर था 1839 में अपनी पोस्ट से डिसमिस कर दिया गया। इस वक्त मार्क्स का सबसे करीबी दोस्त था एडोल्फ रटनबर्ग जो कि एक जर्नलिस्ट था। उसने अपने रेडिकल पॉलिटिकल आइडियाज की वजह से जेल भी काटी हुई थी। उसने मार्क्स को कहा कि तुम सिर्फ फिलॉसफी तक लिमिटेड ना रहो बल्कि अपने आप को सोशली और पॉलिटिकली इनवॉल्व करना शुरू करो। बिल आखिर अप्रैल 1841 में मार्क्स ने अपनी पीएचडी को कंप्लीट किया थ्रू अ डॉक्टोरल डिसर्टेशन। उसकी शख्सियत आहिस्ता-आहिस्ता इवॉल्व हो रही थी। उसके ज़हन में कुछ ऐसे इंकलाबी आइडियाज बन रहे थे जिन्होंने ना सिर्फ

यूरोप बल्कि पूरी दुनिया के पॉलिटिकल लैंडस्केप को चेंज करके रख दिया। 1841 ही वो साल था जब लुडविक फ्यूलरबाग ने एक ऐसी किताब लिखी जिसने क्रिश्चियनिटी की बुनियादों को हमेशा के लिए झंझोड़ के रख दिया। यूरोप में मजहब के बचने की जो आखिरी उम्मीद थी वो इसी किताब के साथ दम तोड़ गई। इस बुक का नाम है दोस्तों द एसेंस ऑफ क्रिश्चियनिटी। इस बुक ने मार्क्स और उसके दोस्तों पर बहुत गहरा इन्फ्लुएंस किया। फ्यूरबार्क का कहना था कि हेगल गलत है क्योंकि हेगल एक आइडियलिस्ट था जो कहता था कि यह जो मैटर या फिजिकल वर्ल्ड है ना यह स्पिरिट पर डिपेंड करता है। फ्यूअर बाक के

मुताबिक रियलिटी इससे बिल्कुल उलट है। उसका कहना था कि ये जो एब्सोल्यूट स्पिरिट है ना इस तरह की कोई चीज नहीं होती। फ्यूअरबार्क ने कहा कि हेगल की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उसने थॉट को सब्जेक्ट बना दिया और इंसान को प्रेडिकेट। जबकि इस कायनात का सबसे बड़ा सब्जेक्ट खुद इंसान है। फियर बार्क ने कहा कि यह जो हेगल की अब्सोल्यूट स्पिरिट है ना यह दरअसल खुदा का फिलोसोफिकल वर्जन है। हम जिस भी खुदा को इमेजिन करते हैं ना वो दरअसल इंसान की ही क्वालिटीज का एक मजमुआ है। एक कंसोलिडेशन है। वो कहना ये चाहता था कि इंसान की जो बेहतरीन खुसूसियात है ना जो

उसकी बेस्ट क्वालिटीज है उनको जमा करता है और एक इमेजिनरी क्रिएटर बना देता है। और उसको खुदा कहता है। उसका कहना था कि इस कायनात में एक ही एब्सोल्यूट है और वो एब्सोल्यूट है इंसान। यही वो सोच थी जिसने मार्क्स की थॉट को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया। उसने हेगल और फियरबा के आइडियाज को जमा किया। उसने रियलाइज किया कि दुनिया को समझने का असल तरीका मटेरियल कंडीशंस और उनके कंट्राडिकशंस को एनालाइज करना है। माय डियर बुक बडीज यही वो यूरिका मोमेंट था जिसका मार्क्स को इंतजार था। 1842 में कार्ल मार्क्स ने कॉलोन के एक न्यूज़पेपर

में लिखना शुरू किया। यह एक लिबरल पेपर था जहां मार्क्स ने सेंसरशिप के खिलाफ आर्टिकल्स लिखे और उसे मोरल इविल कहा। जल्द ही मार्क्स इस पेपर का एडिटर बन गया और उसने गरीबी, सोशल इश्यूज और कम्युनिज्म के बारे में डिटेल में लिखना शुरू किया। अब अगर मार्क्स किसी न्यूज़पेपर का एडिटर होगा तो उसके खिलाफ एक्शन तो होगा। गवर्नमेंट ने इस न्यूज़पेपर को बंद करवा दिया। 1843 में मार्क्स ने जेनी वॉन वेस्टफेलन से शादी की और पेरिस चला गया। जो उस वक्त सोशलिज्म का मरकज था। पेरिस में पहली दफा कार्ल मार्क्स की मुलाकात हुई रेवोल्यूशनरीज और कम्युनिस्ट से लेकिन

उसको उनके आइडिया ज्यादा पसंद नहीं आए। लेकिन उनके भाईचारे और इंसानियत ने मार्क्स को इन्फ्लुएंस करना शुरू किया। इसी दौर में उसने अपने फेमस इकोनॉमिक और फिलोसोफिकल मैनुस्क्रिप्ट्स लिखे। पेरिस में ही कार्ल मार्क्स की एक ऐसे शख्स से मुलाकात हुई जो उसका सबसे गहरा दोस्त और कोलैबोरेटर बन गया। मैं बात कर रहा हूं फ्रेडरिक एंगल्स की। इन दोनों ने मिलकर ही एक ऐसी किताब लिखी जो दुनिया की तारीख में शायद सबसे इन्फ्लुएंशियल किताब है। इस बुक का नाम है द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो। खैर कार्ल मार्क्स अपने आइडियाज, अपने सोच, अपनी थॉट की वजह से पूरी उम्र भटकता रहा।

उसके आइडिया स्टेटस को पसंद नहीं आते थे क्योंकि वो उनकी पावर को चैलेंज करते थे। उसने दास कैपिटल जैसी किताब लिखी जिसे वर्किंग क्लास की बाइबल कहा जाता है। इस किताब में मार्क्स ने समझाया कि यह जो कैपिटलिज्म है ना यानी कि सरमायादारी निजाम ये दरअसल वर्किंग क्लास की एक्सप्लटेशन पर मबनी है। दास कैपिटल ने ना सिर्फ इकॉनमी का एनालिसिस दिया बल्कि ये भी दिखाया कि कैपिटलिज्म एक वक्त के बाद अपनी ही कंट्राडिक्शन की वजह से खत्म हो जाता है। इस थ्योरी ने पूरे यूरोप के वर्कर्स को एक उम्मीद दी, एक होप दी। वर्किंग क्लास को लगने लगा कि कार्ल

मार्क्स ही वह मसीहा है जो उनको उनके प्रॉब्लम से निजात दिलाएगा। कार्ल मार्क्स को सिर्फ उसकी इकोनमिक और पॉलिटिकल थ्योरी की वजह से शहरत नहीं मिली बल्कि मजहब यानी रिलजन के बारे में भी उसके आइडियाज बहुत ही मशहूर है लेकिन कंट्रोवर्शियल है। मार्क्स ना मजहब को सिर्फ अकीदे और इबादत के तौर पे नहीं बल्कि एक सोशल और हिस्टोरिकल फिनोमिना के तौर पे देखता था। उसने रिलजन पर सबसे ज्यादा तफसील से अपना पॉइंट कंट्रीब्यूशन टू द क्रिटिक ऑफ हेगल्स फिलॉसफी ऑफ़ राइट में लिखा। इसी में उसने अपनी वो मशहूर स्टेटमेंट लिखी जिसे आज भी कोट किया जाता है और आज भी

मिसअंडरस्टैंड किया जाता है। लेकिन आज मैं आपको इस कोड को सही तरीके से समझा दूंगा। रिलजन इज द स ऑफ द ऑप्रेस क्रिएचर, द हार्ट ऑफ अ हार्टलेस वर्ल्ड एंड द सोल ऑफ आवर सोललेस कंडीशंस। इट इज द ओपियन ऑफ द पीपल। ये लाइंस कार्ल मार्क्स ने तब लिखी जब यूरोप में गुरबत, इनकलिटी और जुल्म बहुत ज्यादा था। लोग बहुत दुखी थे। मजदूरों की कोई इज्जत नहीं थी और उन्हें बुरी तरीके से एक्सप्लइट किया जाता था। ऐसे हालात में मार्क्स रिलजन को एक रिएक्शन के तौर पर देख रहा था। यह जो ओपीएम है ना इसे आम जबान में अफीम कहा जाता है। मार्क्स का मानना था कि मजहब

इंसान के लिए अफीम का ही काम करता है। उस दौर में ये जो ड्रग अफीम थी ना यह सिर्फ दर्द को कम करती थी। बीमारी को खत्म नहीं करती थी। इसका इस्तेमाल होता था मरीज को सिर्फ टेंपरेरी सुकून देने के लिए। मार्क्स का कहना था कि मजहब भी इंसान के लिए ऐसे ही काम करता है। स्पेशली गरीबों के लिए जब वो अपनी महरूमियों का शिकार होते हैं। उनकी जिंदगी में बेतहाशा इशज़ और प्रॉब्लम्स होते हैं तो वो मजहब के जरिए ही अपने आप को तसल्ली देते हैं। लेकिन वो तसल्ली कभी भी उनके एक्चुअल प्रॉब्लम्स को सॉल्व नहीं करती। मसलन सोचें एक मजदूर 12 घंटे फैक्ट्री में काम करता है। जो सैलरी

शुरू में डिसाइड हुई थी वो उसे पूरी भी नहीं मिलती। फिर भी वो वहां काम कर रहा है क्योंकि उसके पास कोई और ऑप्शन है ही नहीं। कम सैलरी की वजह से उसे बेशुमार प्रॉब्लम्स का सामना करना पड़ता है। लेकिन वो फैक्ट्री ओनर्स के खिलाफ आवाज नहीं उठाता। अब दोस्तों ये एक बारीक बात है और पाकिस्तान के केस में भी बिल्कुल एप्लीकेबल है। इसको आपने ध्यान से सुनना है। मजहब का रोल यहां पर तब आता है जब वो अपने आप को तसल्ली देता है कि इसका अजर उसे आखिरत में ही मिलेगा। और यह जो जालिम फैक्ट्री वर्कर है ना इसे अल्लाह आखिरत में पूछेगा। यह जुमला यह सोच उसे आरजी तौर

पर एक रिलीफ एक कंफर्ट तो दे देती है लेकिन मसला यह है कि वो जो अनजस्ट सिस्टम है वो जो नाइंसाफी का निजाम है वो तो बदलता ही नहीं है। फैक्ट्री ओनर्स सारी उम्र मजदूरों को एक्सप्लइट करते हैं और उनको उनकी मेहनत के मुताबिक पैसे नहीं देते। नाइंसाफी का यह सिस्टम वक्त के साथ स्ट्रांग होता चला जाता है। क्योंकि कोई उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता। जानते हैं क्यों? इसका सबसे बड़ा रिस्पांसिबल है मजहब। क्योंकि लोग मजहब के जरिए अपने आप को तसल्ली देते हैं कि हमें इसका सिला आखिरत में मिलेगा। और यह जो शख्स हमें एक्सप्लइट कर रहा है ना इसे खुदा आखिरत

में इसकी सजा देगा। जिस तरह अफीम इंसान को सुकून देती है ना इस तरह की जो स्टेटमेंट्स है वो भी इंसान को कहीं ना कहीं सुकून देती है। कार्ल मार्क्स का मानना था कि जिस सोसाइटी में भी इनजस्टिस होती है नाइंसाफी होती है वहां पर असल मसला दरअसल उस मुआशरे की जड़ में होता है। और अगर प्रॉब्लम को जड़ से पकड़ लिया जाए ना तो वहीं से उसका सशन निकलता है। इस बात को समझाने के लिए मार्क्स ने ये कमाल की स्टेटमेंट कही। टू बी रेडिकल इज टू ग्रास थिंग्स आइदर रूट। यानी असल रेडिकल सोच वही है जो मसले को सरफेस पर नहीं बल्कि उसकी जड़ से समझे और हल करे। लेकिन जब लोग

मसाइल का हल मजहब के जरिए ढूंढने की कोशिश करते हैं ना तो वो कभी भी मसले की जड़ तक नहीं पहुंच पाते। जिसका सबसे बड़ा फायदा रूलिंग क्लास उठाती है। वो लोगों को रिलीजियस आइडियाज में उलझाकर सोशल और इकोनमिक इश्यूज की तरफ से ध्यान हटा देते हैं। ये जो रूलिंग क्लास है ना ये बड़ी शार्प, क्लेवर, इंटेलिजेंट और तगड़ी है। ये जानते हैं कि जो आम इंसान है ना अगर आप इसको मजहब में उलझा देंगे ना तो वो कभी भी मसले की जड़ को पहुंच ही नहीं पाएंगे। लिहाजा ये लोगों को उन्हीं के बिलीफ सिस्टम में ऐसा उलझा देते हैं कि वो सारी उम्र इसी चक्रव्यूह में गुजारते हैं।

विदाउट एड्रेसिंग व्हाट द रियल इशू इज। लेकिन दोस्तों ये जो कार्ल मार्क्स का कोटेशन है ना इसमें रिलजन को लेके उसके दो पर्सेक्टिव्स हैं जिनको समझना बहुत जरूरी है। वो लिखता है रिलजन इज द स ऑफ द ऑप्टेस्ट क्रिएचर। यानी मजहब असल में एक आ है उन लोगों की जो जुल्म और नाइंसाफी का शिकार हैं। जैसे कोई भी गरीब या मजलूम इंसान जब अपने प्रॉब्लम्स की बात कर रहा होता है ना तो उसके मुंह से एक आ निकलती है। ये आ निकलती है उसके मुंह से मजहब की शक्ल में। लिहाजा ऐसी सिचुएशंस में मजहब कहीं ना कहीं उसके जख्मों पर मरम का भी काम करता है। उसे कंफर्ट भी प्रोवाइड करता

है। वरना तो उसके पल्ले कुछ भी ना हो। आगे वो लिखता है द हार्ट ऑफ अ हार्टलेस वर्ल्ड। यानी कि दुनिया इतनी जालिम है, इतनी क्रूल है, इतनी हार्टलेस है। और इसी हार्टलेस वर्ल्ड में मजहब एक दिल का काम करता है। ऐसी जालिम दुनिया में मजहब लोगों को एक होप देता है, एक उम्मीद देता है। आगे वो लिखता है द स्पिरिट ऑफ अ स्पिरिटलेस सिचुएशन। यानी कि जब जिंदगी इतनी मैकेनिकल और सोललेस हो जाती है कि इंसान सिर्फ मशीन बनकर रह जाता है तब मजहब ही इंसान को एक स्पिरिट देता है। यानी जब इंसान अपने पर्पस, अपनी डिग्निटी को भुला देता है ना तो मजहब उसको एक रास्ता दिखाता

है। दरअसल मार्क्स इस स्टेटमेंट के जरिए बताना ये चाहता है कि रिलजन इंसान के दुख और जुल्मों का ना सिर्फ एक्सप्रेशन है बल्कि उसके खिलाफ एक प्रोटेस्ट भी है। रिलजन को वो एज एक्सप्रेशन ऑफ़ सफरिंग लिखता है। इसका मतलब यह है कि जब भी इंसान जुल्म और नाइंसाफी का शिकार होता है तो वो कहीं ना कहीं अपनी फीलिंग्स को एक्सप्रेस करना चाहता है। और रिलीजन ही इस सफरिंग में एक एक्सप्रेशन बन जाता है। इसकी मिसाल आप कुछ यूं समझे। जब कोई भी इंसान गरीब भी, मुफ्लिसी या भूख में जी रहा होता है ना, तो वो अक्सर औकात ये स्टेटमेंट बोलता है। अल्लाह ने आजमाइश दी है। आखिरत में

मुझे इस मुश्किल का अच्छा सिला मिलेगा। यह स्टेटमेंट दरअसल उसकी सिचुएशन का इज़हार है। वो कह रहा है कि उसकी जिंदगी मुश्किल है। लेकिन यहां पर वो रिलजन को एज अ प्रोटेस्ट भी यूज़ कर रहा है। क्योंकि जब भी कोई शख्स ये बात कहता है ना कि उसको इस बात का सिला आखिरत में मिलेगा तो दरअसल ये इस बात की कन्फेशन है कि इस दुनिया में जस्टिस और इंसाफ है ही नहीं। यह एक तरह से एक शिकायत, एक प्रोटेस्ट है अगेंस्ट द रियल कंडीशंस ऑफ़ लाइफ। इसके अलावा मार्क्स ने यह भी लिखा कि मैन मेक्स रिलजन। रिलजन डस नॉट मेक मैन। यह भी बहुत गहरी और कंट्रोवरर्शियल बात है जिसको सही तरीके से

समझना बहुत जरूरी है। इस बात से कार्ल मार्क्स का मतलब यह है कि रिलजन इंसान का प्रोडक्ट है। इंसान की सोच और एक्सपीरियंसेस से बना है। इस बात से कार्ल मार्क्स का मतलब यह है कि मजहब ना दरअसल इंसान का बनाया हुआ है। ये इंसान के एक्सपीरियंसेस का उसके सोच की ही प्रोडक्ट है। क्योंकि अगर रिलिजन असल में इंसान को बनाता तो दुनिया के सब इंसान एक ही रिलजन को फॉलो करते। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है क्योंकि दुनिया में दर्जनों रिलिजंस हैं। हर कौम, हर कल्चर का अलग मजहब है। फॉर इंस्टेंस एक अफ्रीकन ट्राइब के लिए उनका गॉड ऑफ रेन सब कुछ है। इसी तरह एक डेजर्ट

एक सहराई सोसाइटी के लिए अल्लाह पानी देने वाला है। लिहाजा मजहब दर असल इंसान के प्रॉब्लम्स और उसके एनवायरमेंट से बनता है। यानी मजहब दरअसल इंसान का अपना आईना है। अब यहां पर मैं वो बात करूंगा जो शायद बहुत से लोगों को बुरी लगे। लेकिन दरअसल दोस्तों यही रियलिटी है। मैं आपको कितने सालों से बता रहा हूं। हर वीडियो में ऑलमोस्ट बताता हूं कि इंसान की जिंदगी का असल मकसद है अपने ट्रू पोटेंशियल तक पहुंचना। लेकिन मसला यह है कि जब इंसान अपने ट्रू पोटेंशियल तक इस दुनिया में नहीं पहुंच पाता ना मेहनत नहीं कर पाता, सैक्रिफाइस नहीं कर पाता तो वो बिल आखिर

मजहब का ही सहारा लेता है। अपनी सेल्फ एस्टीम जो उसने अपनी मेहनत के बलबूते पर बिल्ड करनी थी उसको तो वो खो देता है लेकिन उसको दोबारा हासिल करने के लिए उसके पास एक ही चारा है। और वो है मजहब। रिलजन इंसान के लिए एक इल्लुजन क्रिएट करता है। एक परफेक्ट वर्ल्ड क्रिएट करता है। एक पर्सनल गॉड क्रिएट करता है। जिसके साथ उस शख्स का एक ट्रांजैक्शनल रिलेशनशिप है। जब उसने बहुत सारे गुनाह कर लिए, लोगों के साथ दो नंबरी कर ली, बेईमानी कर ली तो फिर वो नमाज़ें पढ़ता है, इबादत करता है ताकि अपने गुनाहों को बराबर कर सके। समझता वो यह है कि इन इबादत के जरिए उसका खुदा से

डायरेक्ट रिलेशनशिप है। लेकिन दरअसल वो अपने दिल में बैठे पर्सनल गॉड के लिए ही काम कर रहा होता है। जब असल दुनिया में उसकी ख्वाहिशात पूरी नहीं होती तो वो रिलजन के जरिए अपनी इन ख्वाहिशात को पूरा करना चाहता है। इसकी मिसाल आप कुछ यूं समझे। जन्नत के बारे में सोचें। एक दफा जरा गौर करें कि जब जन्नत के बारे में बात की जाती है तो आप लोगों को क्या बताया जाता है? वहां कोई दुख नहीं होगा। कोई स्ट्रगल नहीं होगी। कोई बुराई नहीं होगी। हर तरफ हरियाली होगी। आप जिन लोगों से बिछड़ चुके हैं, वो लोग आपको दोबारा मिलेंगे। किसी के साथ नाइंसाफी नहीं होगी

और लोग वहां पर हमेशा जिंदा रहेंगे। एक ऐसी तसवुराती दुनिया जो कि एक परफेक्ट वर्ल्ड है। कार्ल मार्क्स का कहना था कि इंसान अपनी जिंदगी में ये सब चीजें अचीव नहीं कर पाता। लिहाजा वो इन चीजों को जन्नत के तौर पर इमेजिन करता है और एक इमेजिनरी वर्ल्ड क्रिएट करके अपनी जिंदगी गुजारने की कोशिश करता है। इसी बात को मजीद समझने के लिए वो कहता है कि रिलजन इज द सेल्फ कॉन्शियसनेस एंड सेल्फ रिगार्ड ऑफ़ मैन हु हैज़ इदर नॉट येट फाउंड और हैज़ ऑलरेडी लॉस्ट हिमसेल्फ। इंसान की सबसे बड़ी पहचान होती है खुद को समझना। अपनी वैल्यूस को डिफाइन करना और सोसाइटी के अंदर अपने

पोटेंशियल को रियलाइज करना। लेकिन मार्क्स कहता है कि बहुत से लोग या तो अपनी असल पहचान अभी तक ढूंढ ही नहीं पाए या फिर जो पहचान पहले भी उनके पास थी उसको भी खो चुके हैं। मार्क्स का कहना था कि इस दुनिया में बहुत से लोग अपनी पहचान को रियलाइज ही नहीं कर पाते या जिन लोगों के पास पहले पहचान थी उसको खो देते हैं। इसीलिए लोग तसल्ली और पहचान रिलजन के जरिए ढूंढने लगते हैं। मजहब इंसान के अंदर के इमोशंस, उसकी नीड्स, उसके ख्वाहिशात का आईना बन जाता है। जो इंसान अपने अंदर खुद को समझ नहीं पाता, वह रिलिजन में अपनी तसल्ली ढूंढता है। लेकिन प्रॉब्लम यह है

कि इंसान अपना असली मसला सॉल्व करने की बजाय अपने इमोशंस और नीड्स को एक इमेजिनरी रूप में रिलजन के अंदर डाल लेता है। वो समझता है कि असल रिलीफ उसे रिलजन में मिलेगा। लेकिन दरअसल यह रिलीफ उसे अपने आप से चाहिए होता है। कार्ल मार्क्स के मुताबिक रिलीफ मिलना चाहिए अपना पोटेंशियल रियलाइज करने से और दूसरों के लिए स्टैंड लेने से। याद रखें कार्ल मार्क्स को इस बात से मसला नहीं था कि इंसान के अंदर स्पिरिचुअलिटी क्यों है। उसे मसला इस बात से था कि यह जो स्पिरिचुअलिटी है ना यह इंसान को अपने आप से दूर ले जाती है। एक इलुजनरी वर्ल्ड में ले जाती है। एक ऐसी

दुनिया जहां पे इलजनरी हैप्पीनेस है। लेकिन इसका रियलिटी से कोई ताल्लुक नहीं। इसीलिए कार्ल मार्क्स कहता था कि अगर इंसान ने ट्रू हैप्पीनेस हासिल करनी है ना तो इस इलुजनरी वर्ल्ड को तोड़ना होगा। रिलिजन की जो तसल्लियां हैं उनसे जान छुड़ानी होगी। अपने आपको, अपनी कंडीशंस को इन रियलिटी बदलना होगा। अगर दुनिया में इंसाफ होगा, बराबरी होगी और एक्सप्लॉयटेशन खत्म होगी, तो फिर इंसान को अपनी तसल्ली के लिए इल्लुजंस की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। यह दुनिया ही उसके लिए जन्नत बन जाएगी। इसी बात को मजीद खूबसूरती से समझाने के लिए मार्क्स लिखता है कि आप एक ऐसे इंसान

को तसवुर करें जो जंजीरों में जकड़ा हुआ है। इस सिस्टम ने उसे कैद कर रखा है। उसके हाथों और पैरों में भारी जंजीर हैं जो उसके फ्रीडम को मुकम्मल तौर पर खत्म कर चुकी हैं। लेकिन उस जंजीर के ऊपर फूल लटका दिए गए हैं जो उन जंजीरों को खूबसूरत दिखा रहे हैं। वो कहता है कि मेरा क्रिटिसिज्म मेरी तनकीद उन फूलों पर है। असल जंजीरों पर है। और उस सिस्टम पर है जो इंसानों से उसकी आजादी छीन ले। मार्क्स कहता है कि इंसान के पास ना दो ऑप्शंस हैं। या तो वो उन जंजीरों के फूलों से अपने आप को सारी उम्र तसल्ली देता रहे। या फिर इन जंजीरों

को तोड़ के अपनी आजादी को हासिल करे। और जब इंसान इन जंजीरों को तोड़ता है तभी इंसान की असली जिंदगी का आगाज होता है। असली खुशी उसे तभी ही नसीब होती है। और आखिर में मार्क्स की बहुत ही खूबसूरत और रेवोलशनरी बात जो इंसान की पर्सनालिटी को उसकी सोच को बिल्कुल बदल के रख सकती है। मार्क्स कहता है कि इंसान जब अपने इल्लुजंस, अपनी गलतफहमी से बाहर आ जाता है ना तो फिर वो अपनी लाइफ का खुद सूरज बन जाता है। सूरज यहां पे सिंबल है रोशनी और एनर्जी का। इंसान अगर अपना ही सूरज बन जाए तो फिर उसे किसी फेक सूरज की जरूरत नहीं रहती। मार्क्स के मुताबिक मजहब ऐसा ही एक

इलुजनरी सन है जो तब तक इंसान को अपने गलबे में रखेगा उसके इर्दगिर्द घूमता रहेगा जब तक वो खुद सूरज ना बन जाए। रिलजन इज ओनली द इल्लुजरी सन व्हिच रिवॉल्व्स अराउंड मैन एस लॉन्ग एस ही डस नॉट रिवॉल्व अराउंड हिमसेल्फ। यह तो थे कार्ल मार्क्स के मजहब के बारे में पावरफुल नजरियात। क्या आप इसके आईडिया से एग्री करते हैं? यह बात याद रखें कि आप इसके आईडिया से एग्री करें या ना करें। लेकिन इसकी सोच को डिस्कार्ड करने से पहले इसके बारे में सोचिएगा जरूर क्योंकि मैं नहीं चाहता कि आप सारी उम्र बेड़ियों, जंजीरों और कैद में गुजारे।


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