Khol Do By Saadat Hasan Manto – Painful Story of a Father and Daughter

सादत हसन मंटो सिर्फ अफसाने नहीं लिखता था बल्कि हमारे जमीर को झंझोड़ता था। उसके अल्फाज़ सफों पर नहीं बल्कि दिलों पर लिखे जाते थे। यही वजह है कि पिछले कुछ एपिसोड्स में मैंने मंटो के कुछ जबरदस्त अफसानों को कवर किया है। आज भी ऐसे ही एक अफसाने की बारी है जिसका टाइटल है खोल दो। बुकबज ये सिर्फ एक अफसाना नहीं बल्कि एक आईना है जो हमें यह दिखाता है कि जब तहजीब के लिबादे उतर जाए तो इंसानियत किस कदर बेलिबास हो जाती है। यह कहानी है हिजरत की। एक बाप की और एक बेटी की। एक बूढ़ा बेचारा बाप जो अपनी बेटी की तलाश में है। हमेशा की तरह मंटो का यह जो अफसाना है ना

यह इंसान का दिल दहला देता है। और मैं आपको पहले भी बता चुका हूं कि मंटो के अफसानों की जो सडन और शॉकिंग एंडिंग्स होती है ना उसका कोई सानी नहीं है। सो आज की कहानी का आगाज करते हैं। जरा दिल थाम के सुनिएगा। अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर 2:00 बजे को चली और 8 घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। मुतादिद जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए। सुबह 10:00 बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोली और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक समंदर देखा तो उसकी सोचने समझने की कुतें और भी जईफ हो गई। वो देर तक आसमान को देखता रहा।

यूं तो कैंप में हर तरफ शोर बरपा था। लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान जैसे बंद थे। इसे कुछ सुनाई ना देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता कि वह किसी गहरी फिक्र में गर्क है। मगर ऐसा नहीं था। गदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखतेदेखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराई। तेज रोशनी इसके वजूद के रग और रेशे में उतर गई और वो जाग उठा। ऊपर तले इसके दिमाग पर कई तस्वीरें दौड़ गई। लूट, आग, भागमभाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना। सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह इसने अपने चारों तरफ फैले हुए आसमानों के समंदर को खंगालना शुरू

किया। पूरे 3 घंटे वो सकीना सकीना पुकारता कैंप में खाक छानता रहा। मगर इसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता ना मिला। चारों तरफ एक धुंधली सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था। कोई मां, कोई बीवी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक हार कर एक तरफ बैठ गया और हाफज़ पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना इससे कब और कहां जुदा हुई। लेकिन सोचते-सचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुई थी। इससे आगे वो और कुछ ना सोच सकता। सकीना की मां मर चुकी थी। इसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था। लेकिन सकीना कहां थी जिसके मुताल्लिक

उसकी मां ने मरते हुए कहा था मुझे छोड़ो और सकीना को लेकर जल्दी यहां से भाग जाओ। सकीना इसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुपट्टा गिर पड़ा था। इसे उठाने के लिए इसने रुकना चाहा था। मगर सकीना ने चिल्लाकर कहा था, अब्बा जी छोड़िए। लेकिन इसने दुपट्टा उठा लिया था। यह सोचते-सचते इसने अपने कोर्ट की उभरी हुई जेब की तरफ देखा और इसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला। सकीना का वही दुपट्टा था। लेकिन सकीना कहां थी? सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर जोर दिया मगर वह किसी नतीजे पर ना पहुंच सका। क्या वो सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?

क्या वो उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी? रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वो बेहोश हो गया था जो वह सकीना को उठाकर ले गए। सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे। जवाब कोई भी ना था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी। लेकिन चारों तरफ जितने भी इंसान फैले हुए थे सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा मगर आंखों ने इसकी मदद ना की। छह रोज के बाद जब होशो हवास किसी कदर दुरुस्त हुए तो सिराजुद्दीन इन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने के लिए तैयार थे। आठ नौजवान थे जिनके पास लारी थी, बंदूकें थी। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआएं दी

और सकीना का हुलिया बताया। गोरा रंग है और बहुत ही खूबसूरत है। मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी। उम्र 17 बरस के करीब है। आंखें बड़ी-बड़ी, बाल स्या, दाने, गाल पर मोटा सा तिल मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ। तुम्हारा खुदा भला करेगा। रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढ़े सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर इसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में इसके पास होगी। आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेलियों पर रखकर वह अमृतसर गए। कई औरतों, कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल निकाल कर उन्होंने महफूज़ मुकामों पर पहुंचाया। 10 रोज गुजर गए। मगर इन्हें सकीना कहीं ना

मिली। एक रोज वो इसी खिदमत के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि उन्हें सड़क के किनारे एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बितकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सब के सब इसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा तो बहुत खूबसूरत थी। दाने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने इससे कहा, घबराओ नहीं। क्या तुम्हारा नाम सकीना है? लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। इसने कोई जवाब ना दिया। लेकिन जब तमाम लड़कों ने इसे दम दिलासा दिया तो इसकी वैशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वह सिराजुद्दीन की बेटी सकीना है। आठ रजाकार नौजवानों ने

हर तरह सकीना की दिलजोई की। इसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बिठा दिया। एक ने अपना कोट उतार कर इसे दे दिया। क्योंकि दुपट्टा ना होने के बायस वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बाहों से अपने सीने को ढांकने की नाकाम कोशिश में मशरूफ थी। कई दिन गुजर गए। सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर ना मिली। वो दिन भर मुख्तलिफ कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता। लेकिन कहीं से भी उसको बेटी का पता ना चला। रात को वह बहुत देर तक इन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता। जिन्होंने उसको यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद

दिनों में ही वह उसे ढूंढ निकालेंगे। एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा इनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा बेटा मेरी सकीना का पता चला। सब ने यक जबान होकर कहा चल जाएगा चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर इन नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआ मांगी और इसका जी किसी कदर हल्का हो गया। शाम के करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, इसके पास ही कुछ गड़बड़ सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। इसने दरियाफ्त किया तो मालूम हुआ कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी

थी। लोग इसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन इनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया। कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर खड़े हुए लकड़ी के खंभे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई भी नहीं था। एक स्ट्रेचर था जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता इसकी तरफ बढ़ा। कमरे में दफतन रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ दिल देखा और चिल्लाया। सकीना डॉक्टर ने जिसने कमरे में रोशनी की थी सिराजुद्दीन से पूछा क्या है? सिराजुद्दीन के हल्क से सिर्फ इस कदर निकल सका। जी मैं

इसका बाप हूं। डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की तरफ देखा। इसकी नब्स टटोली और सिराजुद्दीन से कहा खिड़की खोल दो। सकीना के मुर्दा जिस्म में जुंबिश पैदा हुई। बेजान हाथों से उसने जारबंद खोला और शलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया। जिंदा है। मेरी बेटी जिंदा है। डॉक्टर सर से पैर तक पसीने में गर्क हो गया। मंटो का यह अफसाना खोल दो। सिर्फ एक कहानी नहीं है। बल्कि ये एक चीख है। एक एतेजाज है उन सबके खिलाफ जो कौम, मजहब और सरहदों का इस्तेमाल करते हैं औरतों की इज्जत उतारने के लिए। यह पूरी कहानी इस एक

छोटे से जुमले खोल दो कि ऊपर खड़ी हुई है। सकीना का यह अमल इस बात की गवाही देता है कि उसकी ज़हनी और जिस्मानी हालत इतनी बिगाड़ दी गई थी कि उसको इसके अलावा कुछ और सूझा ही नहीं। कहानी के आखिर में यह जुमला खोल दो पढ़ने वाले को ऐसा धजका देता है कि वो कुछ लम्हे के लिए खामोश हो जाता है। सकीना की खामोशी और फिर सिर्फ खोल दो पर रद्दे अमल पूरे मुआशरे की इज्तिमाई बेहिस्सी की अलामत है। ना उसके बाप को अंदाजा हुआ कि उसके ऊपर क्या गुजरी। ना डॉक्टर को और शायद पढ़ने वाले को भी कुछ लम्हे तक यह पता ना लगे कि असल सानिया क्या था। इससे आगे मजीद कुछ कहना अब मेरे

लिए मुमकिन ना होगा।

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