Does God Exist – Atheism, Religion & Science – The God Delusion by Richard Dawkins

क्या खुदा का वाकई वजूद है? डस गॉड एक्सिस्ट? सवाल तो दोस्तों बड़ा गंभीर है और आज इसी सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करेंगे एक ऐसे शख्स की नजर से हु इज कंसीडर्ड द फादर ऑफ एथिज्म यानी के मुदों का बाप। मैं बात कर रहा हूं रिचर्ड डॉकिंस की। मेरे प्यारे दोस्तों, खुदा के वजूद को लेकर, उसकी एक्सिस्टेंस को लेकर पिछले हजारों सालों से डिबेट्स चलती आ रही हैं। इसमें जो रिलीजियस लोग हैं, जो मजहबी लोग हैं, वह तो ऑफ कोर्स इस बात पर यकीन रखते हैं कि खुदा वाकई में एक्सिस्ट करता है। यह उनके फेथ, उनके ईमान का हिस्सा है। और याद रखें

दोस्तों, फेथ का मतलब होता है बिलीफ इन द एब्सेंस ऑफ एविडेंस। यानी कि जब आपका ईमान है ना तो फिर आपको किसी भी किस्म के एविडेंस की जरूरत नहीं है। बस ईमान है तो है। दूसरी तरफ वो लोग हैं जो साइंटिफिकली रैशनली सोचते हैं। वो यह बिलीव करते हैं कि खुदा ने इंसान को नहीं बल्कि इंसान ने ही दरअसल खुदा को बनाया है। यह जंग चलती आ रही है और हमेशा चलती रहेगी। लेकिन इस जंग के अंदर कुछ ऐसे इंपॉर्टेंट कैरेक्टर्स होते हैं व्हिच डिफाइन हिस्ट्री। रिचर्ड डॉकिं्स भी ऐसा ही एक शख्स है। आज पूरी दुनिया में एथिज्म का अगर कोई पोस्टर बॉय है तो वो है रिचर्ड डॉकिंजी। इसकी किताबें

पूरी दुनिया में पढ़ी जाती हैं। द सेल्फिश जीन, द ब्लाइंड वॉच मेकर एंड द गॉड डलजन आर सम ऑफ ह बेस्ट वर्क्स। आज हम इसकी किताब द गॉड डल्यूजन का फॉरेंसिक करेंगे। इसको डिटेल में समझेंगे और मैं आपको बताऊंगा कि रिचर्ड डॉकिंस का खुदा के बारे में क्या पर्सपेक्टिव है। लेकिन इससे पहले कि मैं अपनी आज की गुफ्तगू को स्टार्ट करूं। मैं सब ईमान वालों को मैसेज देना चाहता हूं कि आपने घबराना नहीं है, परेशान नहीं होना, तिलमिलाना नहीं है। आपने काउंटर नैरेटिव को भी सुनना होता है। जरूरी नहीं है कि जो शख्स आपकी बात से एग्री ना करें, आप उसका सर तन से जुदा कर

दें। अपने अंदर हौसला पैदा करें। और दूसरी तरफ वो लोग हैं जो एथिस्ट हैं। वो तो वैसे ही अपने आप को अकले कुल समझते हैं। उनको भी मेरी तरफ से मैसेज है कि अपने अंदर भी हौसला पैदा करें दूसरे के आर्गुमेंट को सुनने का। और आखिर में मैं आपको यह बताऊंगा कि मेरा पर्सनल पॉइंट ऑफ व्यू इस सारे कांसेप्ट के बारे में क्या है। लिहाजा वीडियो को लास्ट तक जरूर देखिएगा। जब हम रिचर्ड डॉकिंस की किताब द गॉड डलुजन का टाइटल पढ़ते हैं तो यह बात समझना जरूरी है कि खुदा और रिलजन को डल्यूुजन कहने का इसका आईडिया कोई नया नहीं है। यह सोच पहले भी लिटरेचर में मौजूद रही है। 18वीं सदी

के एक बहुत ही फेमस फ्रेंच फिलॉसफर मार्की डिसार्ड ने लिखा था कि रिलजन इज अ फेंटसी जिसे सिर्फ पागल लोगों ने एक्सेप्ट किया है। इसके अलावा कार्ल मार्क्स का रिलिजन के बारे में जो पॉइंट ऑफ व्यू था वो तो मैं आपको पहले ही डिटेल में बता चुका हूं। तो क्या रिचर्ड डॉकिंस ने अपनी इंस्पिरेशन कार्ल मार्क्स या माकी डिसार्ड से ली है? इस बात को जानने के लिए जरा इस किताब के अंदर घुसते हैं। इस किताब के पहले चैप्टर का टाइटल ही ऐसा है जो इसके सेंट्रल आईडिया को डिफाइन करता है। अ डीपली रिलीजियस नॉन बिलीवर। लेकिन यह अजीब सी बात नहीं है। थोड़ा पैराडॉक्सिकल नहीं है।

एक जगह वो डीपली रिलीजियस भी कह रहा है और दूसरी तरफ नॉन बिलीवर भी कह रहा है। इसका मतलब यह है कि एक इंसान जो खुदा पर यकीन नहीं रखता वो फिर भी रिलीजियस या स्पिरिचुअल फीलिंग्स महसूस कर सकता है। यानी बिलीवर्स का कहना है कि अगर तुम आसमान, सितारे, गैलेक्सीस, माउंटेंस, रिवर्स और यूनिवर्स के वंडर्स को देखो तो तुम्हें एक ओ की फीलिंग महसूस होती है। तुम हैरान रह जाते हो कि दुनिया कितनी अमेजिंग है। आपको एक स्पिरिचुअल कनेक्शन फील होता है। और कहीं ना कहीं आप इस बात पर फोकस करने लगते हो कि कोई ना कोई तो हायर अथॉरिटी है जो इस कायनात के निजाम को

चला रहा है। लेकिन डॉकिंस का नजरिया ना थोड़ा मुख्तलिफ है। वो कहता है कि जब नॉन बिलीवर इस कायनात को ऑब्जर्व करता है ना तो उसके अंदर भी इसी तरह की फीलिंग्स आती हैं। लेकिन फर्क सिर्फ यह है कि वो इस फीलिंग को इस सुपर नेचुरल फोर्स को खुदा का नाम नहीं देता। उसके लिए यह सब कुछ सिर्फ नेचर और साइंस के वंडर्स हैं। वो लिखता है कि यूनिवर्स इतने खूबसूरत तरीके से कॉम्प्लेक्स सा लाइफ का इतना कमाल का एवोल्यूशन हुआ है कि इंसान नेचुरली हैरान रह जाता है। लेकिन यह हैरानी किसी सुपर नेचुरल पावर, किसी भगवान, किसी खुदा, किसी अल्लाह की वजह से नहीं होती बल्कि यह

हैरानी होती है साइंस और डिस्कवरी की वजह से। वो बड़ी जबरदस्त और यूनिक बात लिखता है और कहता है कि उसके नजदीक स्पिरिचुअलिटी का मतलब फेथ नहीं बल्कि क्यूरियोसिटी है। जब एक साइंटिस्ट टेलीिस्कोप से स्पेस देखता है या माइक्रोस्कोप से एक लिविंग सेल को ऑब्जर्व करता है तो उसके अंदर भी वही फीलिंग पैदा होती है जो किसी बिलीवर को महसूस होती है। लेकिन वो इस इमोशन को ब्लाइंडली किसी डिवाइन सोर्स से लिंक नहीं करता बल्कि वो इन फीलिंग्स को अपनी अंडरस्टैंडिंग से कनेक्ट करता है। इस दुनिया की लॉस से कनेक्ट करता है और यहां मौजूद हर फिनोमिना

को समझने की कोशिश करता है। मैं आपको अपनी ना एक पर्सनल एग्जांपल देता हूं। मैं कुछ साल पहले जॉर्डन गया और वहां पर डेड सी विजिट किया। डेड सी की दोस्तों अमेजिंग खासियत यह है कि जब आप उसके अंदर डुबकी लगाते हैं तो आप तैरते रहते हैं। आप डूब ही नहीं सकते। अब जो मेरे साथ वहां पर पाकिस्तानी लोग थे वो वहां पर पहुंचकर सुभान अल्लाह माशा्लाह के नारे लगा रहे थे। कुछ लोग सुपरस्टिशियस थे। उन्होंने तो कहा कि भाई यह तो कौमे लूत की जगह है। मैं तो यहां पर जाऊंगा ही नहीं क्योंकि यहां पर उनके ऊपर अज़ाब आया था। लेकिन मैं ना बाय नेचर क्यूरियस आदमी हूं। मेरे अंदर ओ

की फीलिंग्स तो थी लेकिन मैंने इस बात को भी समझने की कोशिश की कि आखिर इस फिनोमिना के पीछे साइंस क्या है? डेड सी में इंसान इसलिए नहीं तैरता क्योंकि वहां पर कोई चिल्ले हो रहे हैं या कोई वजीफे हो रहे हैं। डेड सी में इंसान इसलिए तैरता है क्योंकि उस पानी के अंदर साल्ट कंटेंट बहुत ज्यादा है। डेड सी का जो सेलेनिटी लेवल है ना वो तकरीबन 35 फीस है। जो नॉर्मल समंदर के पानी से तकरीबन 10 गुना ज्यादा है। जब किसी भी पानी के अंदर साल्ट कंटेंट इतना ज्यादा होता है ना तो उसके अंदर बोयन सीसी आ जाती है। जिसकी वजह से हर शख्स उस पानी के अंदर फ्लोट करता है।

और दोस्तों जो फीलिंग है ना इस पानी में फ्लोट करने की इट इज आउट ऑफ दिस वर्ल्ड। ऐसे महसूस होता है जैसे आप हवाओं में उड़े हैं। इट इज अब्सोलुटली माइंड बॉगलिंग। एनीवेज डॉकिंस लिखता है कि साइंस इज नॉट ओनली कंपैटिबल विद स्पिरिचुअलिटी। इट इज एक्चुअली अ प्रोफाउंड सोर्स ऑफ स्पिरिचुअलिटी। यानी कि साइंस और रूहानियत एक दूसरे के ऑपोजिट नहीं। साइंस ही असली रूहानियत। यानी कि स्पिरिचुअलिटी का सोर्स हो सकती है। अपने इसी पॉइंट ऑफ व्यू को एक्सप्लेन करने के लिए वो मुख्तलिफ साइंसदानों को कोट करता है। जैसे कि कार्ल सेगन ने लिखा था कि हाउ इज इट दैट हार्डली

एनी मेजर रिलजन हैज़ लुक्ड एट साइंस एंड कंक्लूडेड दिस इज बेटर देन वी थॉट द यूनिवर्स इज मच बिगर देन आवर प्रॉफेट सेड ग्रैंडर मोर सल मोर एलगेंट। यानी कार्ल सेगन यह बात बताना चाह रहा है कि साइंस के जरिए हमने कायनात के राजों पर से पर्दा उठाया है। हमें साइंस ने यह बताया कि यूनिवर्स कितनी वसी है, कितनी डेंस है, इसके अंदर कितनी बिलियंस एंड ट्रिलियंस ऑफ गैलेक्सीस हैं। लेकिन आज तक किसी भी रिलजन ने साइंस को एप्रिशिएट ही नहीं किया। कोई रिलजन इस बात को एक्सेप्ट क्यों नहीं करता कि साइंस मजहब से भी आगे निकल गई है। इंस्टेड मजहबी लोग कहते हैं कि नो नो माय

गॉड इज अ लिटिल गॉड। एंड आई वांट हिम टू स्टे दैट वे। यानी रिलीजियस लोग यह चाहते हैं कि उनका खुदा, उनका गॉड वैसे ही रहे जैसे कि उनके स्क्रिप्चर्स में लिखा हुआ है। एक प्रेडिक्टेबल और रिस्ट्रिक्टेड गॉड। उन्हें डर लगता है कि अगर यूनिवर्स इतनी वास्ट और कॉम्प्लेक्स है तो शायद इन सबके सामने उनका ट्रेडिशनल गॉड का कांसेप्ट बहुत छोटा लगने लगे। इसीलिए वो साइंस की नई डिस्कवरीज को रिजेक्ट कर देते हैं ताकि खुदा की डेफिनेशन को प्रोटेक्ट कर सकें। कार्ल सेगन कहता है कि रिलजन के फॉलोअर्स के अंदर एक रेजिस्टेंस होती है। वह चाहते हैं कि उनका खुदा, उनके फेथ यानी

कि उनके मजहब और इस जमीन तक ही लिमिटेड रहे। वो नहीं चाहते कि खुदा एक इनफिनिट कॉस्मिक रियलिटी बन जाए। क्योंकि अगर वो बन गया तो उनके पुराने रिलीजियस नैरेटिव्स कोलैप्स कर जाएंगे। इसके बाद डॉकिन स्टीवन वाइनबर्ग की एक बहुत ही इंपॉर्टेंट स्टेटमेंट को कोट करता है। सम पीपल हैव यूज़ ऑफ गॉड दैट आर सो ब्रॉड एंड फ्लेक्सिबल। दैट इट इज इनविटेबल दैट दे विल फाइंड गॉड वेयरवर दे लुक फॉर हिम। यानी बहुत से लोगों ने खुदा का मतलब इतना ब्रॉड और जनरल बना दिया है कि वह जहां भी देखते हैं उन्हें खुदा ही नजर आता है। कोई कहता है गॉड इज नेचर, कोई कहता है गॉड इज

द यूनिवर्स, कोई कहता है गॉड इज एनर्जी। और कुछ लोग तो कहते हैं गॉड इज लव। और मेरा ऑल टाइम फेवरेट फिलॉसफर जिसके खुदा के कांसेप्ट से मैं काफी हद तक एग्री करता हूं। यानी कि बखूक स्पिनोजा। वो तो कहा करता था कि गॉड इज इन द यूनिवर्स। एंड यूनिवर्स इज इन द गॉड। लेकिन स्टीफन वाइनबर्ग का मानना था कि जब आप गॉड की डेफिनेशन को इतना वेग, इतना जनरलाइज कर देते हैं तो उसका कांसेप्ट ही खत्म हो जाता है। जब आप किसी चीज को कहते हैं ना कि वो हर चीज है, वो हर चीज में मौजूद है तो दरअसल उस चीज की एकिस्टेंस ही नहीं होती। ऑफ कोर्स लाइक एनी अदर वर्ड, द वर्ड

गॉड कैन बी गिवेन एनी मीनिंग वी लाइक। इफ यू वांट टू से दैट गॉड इज एनर्जी। देन यू कैन फाइंड गॉड इन अ लंप ऑफ कोल। यानी कि अगर आप खुदा को एक एनर्जी कहना शुरू कर दोगे ना तो फिर आप उसको कोयले के एक टुकड़े में भी पा लोगे क्योंकि कोयला भी एक एनर्जी है। उसके कहने का दरअसल मतलब यह है कि जब आप खुदा के कांसेप्ट को हर जगह घुसा देते हैं ना तो दरअसल यह कांसेप्ट वहीं पर खत्म हो जाता है। फिर यह डिबेट का क्वेश्चन कि डस गॉड एक्सिस्ट मीनिंगलेस बन जाता है। क्योंकि अगर खुदा हर चीज है तो फिर खुदा कुछ स्पेसिफिक भी नहीं है। इसके अलावा आपने बहुत बार सुना होगा कि लोग

कहते हैं कि साइंस विदाउट रिलिजन इज लेम। रिलजन विदाउट साइंस इज ब्लाइंड। और मजाका तौर पर इस कोर्ट को अक्सर अल्बर्ट आइंस्टाइन से एट्रिब्यूट किया जाता है। क्योंकि लोग यह बताना चाहते हैं कि देखो आइंस्टाइन भी गॉड पे बिलीव करता था। जबकि रिचर्ड डॉकिंस अपनी इस किताब में कहता है कि आइंस्टाइन ने खुद इन बातों को डिनाई किया। इट वाज़ ऑफ कोर्स अ लय व्हाट यू रेड अबाउट माय रिलीजियस कन्विक्शंस। अ ल्हिज बीइंग सिस्टमैटिकली रिपीटेड। आई डू नॉट बिलीव इन अ पर्सनल गॉड। एंड आई हैव नेवर डिनाइड दिस बट हैव एक्सप्रेस्ड इट क्लियरली। यानी आइंस्टाइन ने खुद पब्लिकली

इस बात को क्लेरिफाई कर दिया था कि वह किसी भी पर्सनल गॉड को नहीं मानता। वो खुदा जो आपकी दुआएं सुनता है, मोजे करता है। जो अगर आप उसकी बात ना मानो तो आपको गुनाह देता है, आपको जला देता है या फिर आपके अच्छे कामों पर आपको सवाब देता है। आइंस्टाइन ऐसे खुदा को बिल्कुल नहीं मानता था। इफ समथिंग इज इन मी व्हिच कैन बी कॉल्ड रिलीजियस देन इट इज द अनबाउंडेड एडमिरेशन फॉर द स्ट्रक्चर ऑफ द वर्ल्ड। सो फार एज आवर साइंस कैन रिवील इट। यानी अगर मेरे अंदर किसी भी चीज को मजहबी कहा जा सकता है तो वह सिर्फ साइंस के जरिए यूनिवर्स के स्ट्रक्चर को समझने की चाहत

है। यही बात डॉकिंस पूरी किताब में समझाना चाहता है कि स्पिरिचुअलिटी और रिलीजियस बिलीफ दो अलग चीजें हैं। आइंस्टाइन के लिए गॉड एक मेटाफर था। नेचर के लॉस और हार्मोनीस का सिंबल ना कि कोई रियल कॉन्शियस क्रिएटर। वो कहता था कि यूनिवर्स का स्ट्रक्चर इतना एलगेंट है कि खुद ब खुद उसके अंदर सीक्रेट फीलिंग पैदा होती है। लेकिन यह सेक्रेडनेस नॉलेज से आती है। फेथ या ईमान से नहीं। आगे बढ़े तो रिचर्ड डॉकिंस लिखता है कि द गॉड ऑफ द बाइबल, कुरान और एनी अदर होली बुक इज जस्ट अ हाइपोथेसिस। नॉट अ फैक्ट। यानी अगर हम साइंटिफिक थ्योरीज को एविडेंस पर टेस्ट

करते हैं तो फिर गॉड हाइपोथेसिस को भी क्यों ना उसी स्केल पर जज किया जाए। डॉकिंस कहता है कि कोई भी साइंटिफिक क्लेम तब तक वैलिड नहीं होता जब तक उसके पास प्रूफ, ऑब्जरवेशन और टेस्टेबिलिटी ना हो। तो अगर हम कहते हैं कि गॉड एक्सिस्ट तो यह भी एक साइंटिफिक स्टेटमेंट बन जाती है और हर साइंटिफिक स्टेटमेंट की तरह इसको एविडेंस और ऑब्जरवेशन के जरिए प्रूव या डिस्रूव किया जा सकता है। यानी डॉकिंस का मानना है कि खुदा का टॉपिक रिलजन और फिलॉसोफी का सिर्फ सब्जेक्ट नहीं बल्कि ये एक साइंटिफिक क्वेश्चन भी है। क्योंकि अगर कोई डिवाइन बीइंग रियलिटी में एक्सिस्ट

करती है तो उसके एक्सिस्टेंस का कुछ ना कुछ ट्रेस, कोई पैटर्न या कोई फिजिकल इफेक्ट जरूर होना चाहिए। आप मजहबी लोगों से खुदा के बारे में पूछेंगे तो वह कहेंगे कि खुदा वो हस्ती है जिसने इस पूरी कायनात को बनाया है। इसमें हर चीज खुदा ने ही क्रिएट की है। देयर एक्सिस्ट अ सुपर ह्यूमन सुपर नेचुरल इंटेलिजेंस हु डेलीबेटली डिज़ एंड क्रिएटेड द यूनिवर्स एंड एवरीथिंग इन इट इंक्लूडिंग अस। रिचर्ड डॉकिंस इस डेफिनेशन को एक हाइपोथेसिस की तरह देखता है। यानी उसके मुताबिक अगर एक सुपर नेचुरल फोर्स है जिसने इस पूरी कायनात को बनाया है। एक क्रिएटर है जिसने

हम सबको क्रिएट किया है। तो उस क्रिएटर को किसने क्रिएट किया है? हु डिज़ द डिज़र? डॉकिंस के नजदीक ये क्रिएटर वाला कांसेप्ट लॉजिकली नहीं है। और कोई प्रॉब्लम सॉल्व नहीं करता। क्योंकि अगर यूनिवर्स इतनी कॉम्प्लेक्स है कि वो अपने आप नहीं बन सकती तो उसको बनाने वाला तो उससे भी ज्यादा कॉम्प्लेक्स होगा। लिहाजा एक कॉम्प्लेक्स गॉड कैसे अपने आप ही एक्सिस्ट कर सकता है? डिजाइन इज नॉट एन एक्सप्लेनेशन फॉर कॉम्प्लेक्सिटी। इट इज इटसेल्फ अ प्रॉब्लम दैट डिमांड्स एन एक्सप्लेनेशन। यानी क्रिएशन को एक्सप्लेन करने के लिए एक और अनएक्सप्लेंड क्रिएटर

बनाना साइंस की लॉजिक के अगेंस्ट है। इसी कांसेप्ट को कंक्लूड करने के लिए वो लिखता है कि द ओनली वॉच मेकर आर द ब्लाइंड फोर्सेस ऑफ फिजिक्स। यानी इस कायनात इस यूनिवर्स के अंदर आपको हर जगह सिर्फ फिजिक्स की लॉज़ ही नजर आएंगी। इसके अलावा वो लिखता है कि अगर हम ओल्ड टेस्टमेंट यानी बाइबल के पहले हिस्से को ऑब्जेक्टिवली पढ़ें तो वहां का गॉड एक मोरल आइडियल नहीं लगता बल्कि एक ऐसा फिक्शनल कैरेक्टर रखता है जिसकी एक्सट्रीम इमोशंस और वायलेंट ट्रेड्स हैं। ओल्ड टेस्टमेंट का गॉड जेलस और पज़ेसिव है। वो अपने फॉलोअर्स से मुकम्मल लॉयल्टी चाहता

है। और अगर कोई उसके अलावा किसी और की इबादत करे तो वो गुस्सा करता है और उसे पनिश करता है। यह बात खुद बाइबल में लिखी हुई है। फॉर आई द लॉर्ड योर गॉड अहमद जेलस गॉड एग्जिडस 25 डॉकिंस लिखता है कि यह जेलेसी कोई डिवाइन क्वालिटी नहीं बल्कि एक इनसिक्योर डिक्टेटर की ट्रेट लगती है। वो यह भी लिखता है कि ओल्ड टेस्टमेंट का गॉड पेटी और अनजस्ट है जो छोटी-छोटी बातों पर इंसानों को गुनाह देता है सजा देता है। जैसे कि एडमम और ईव का फॉरबिडन फ्रूट को खा लेना और फिर सिर्फ उस फल को खाने की इतनी गंभीर सजा दे देना। वह इस हद तक लिखता है कि इफ अ ह्यूमन बिहेव लाइक द गॉड

ऑफ द ओल्ड टेस्टमेंट वी वुड कॉल हिम अ साइकोपैथ। यानी अगर कोई इंसान ऐसे रिएक्ट करे गुस्से में पूरी कौमों को तबाह कर दे, बच्चों और जानवरों तक को मार दे, तो हम उसे इवल कहेंगे ना कि होली। डॉकिंस फिर स्ट्रांग लैंग्वेज यूज़ करता है और कहता है कि गॉड विंडिक यानी बदला लेने वाला ब्लड थ्रस्टी खून का प्यासा और एथनिक क्लीज़र है। ओल्ड टेस्टमेंट में कई जगहों पर लिखा है कि खुदा ने अपनी चोजन नेशन के लिए दूसरी कौमों को मार देने का हुक्म दिया। यहां तक कि खवातीन और बच्चों को भी। उसका लिखना है कि यह डिवाइन लव नहीं। यह डिवाइन रेसिज्म और वायलेंस है। द गॉड ऑफ द ओल्ड

टेस्टमेंट इज़ आगबली द मोस्ट अनप्लेज़ेंट कैरेक्टर इन ऑल फिक्शन। जेलस एंड प्राउड ऑफ इट। अ पेटी अनजस्ट अनफॉर्गिविंग कंट्रोल फ्रीक अ मिसोजेनिस्टिक होमोफोबिक रेसिस्ट इनफेंटिसाइडल जेनोसाइडल फिलिसाइडल पेस्टिलेंशियल मेगनोमेनिकल सैडोमेसोकिस्टिक केशियसली मेलेट बुली ओ गॉड दिस इज रियली विशियस बेसिकली उसके कहने का मकसद यह है कि खुदा क्यों इतना जेलस है क्यों वो अपने लोगों को गुनाह देना चाहता है उन्हें पनिश करना चाहता है उन्हें आग में धकेलना चाहता है हम कहते हैं कि खुदा बहुत बड़ा है 70 माहओं से भी ज्यादा प्यार करता है। लेकिन उसके बावजूद

इतना जुल्म क्यों? डॉकिंस के मुताबिक साइंस और रिलजन दोनों एक ही सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं। वेयर डड वी कम फ्रॉम? हम लोग दरअसल आए कहां से हैं? लेकिन इन दोनों की अप्रोच इस सवाल को लेकर बिल्कुल मुख्तलिफ है। रिलजन यह कहता है कि हमें खुदा ने बनाया है और यहीं पर कहानी खत्म। जबकि साइंस यह कहती है कि लेट्स फाइंड आउट हाउ इट हैपेंड। साइंस हर सवाल का जवाब डाउट से स्टार्ट करती है। जबकि रिलिजन सर्टेनिटी से साइंस सीखने की कोशिश करती है। जबकि रिलिजन बिलीव करने की रिलिजन के पास पहले से ही सारे सवालों के जवाब मौजूद है। डॉकिंस के मुताबिक इस तरह

की अप्रोच दरअसल इंटेलेक्चुअल डिसऑनेस्टी है। क्योंकि बिलीव विदाउट एविडेंस इज अ रेसिपी ऑफ डिजास्टर। ईमान इंसान को रीजनिंग से दूर कर देता है। वह हमारे लिए एक इजी एग्जिट बन जाता है। जब भी हमें किसी बात का जवाब नहीं मिलता तो हम कहते हैं कि खुदा जाने गॉड नोस बेस्ट। और जैसा कि मैंने आपको डेड सी की एग्जांपल दी थी, उस एग्जांपल का एसेंस उसकी रूह यह थी कि जब आप सवाल करना छोड़ देते हैं और हर चीज अल्लाह के ऊपर डाल देते हैं, तो वहीं से क्यूरियोसिटी का मर्डर हो जाता है। अब जरा बात करते हैं कि डॉकिंस का मजहब यानी रिलीजंस के ओरिजिनेशन के बारे में क्या

आईडिया है? वो कहता है कि मजहब ना दरअसल इंसान की कल्चरल एवोल्यूशन का रिजल्ट है। पुराने इंसानों को जब नेचुरल चीजें समझ नहीं आती थी कि तूफान क्यों आता है? बिजली क्यों गिरती है? बीमारियां क्यों होती हैं? तो वह हर अनएक्सप्लेंड चीज के पीछे एक डिवाइन बीइंग इमेजिन कर लेते थे। यानी कि इन सब चीजों के पीछे वो कहते थे कि एक खुदा है। इसी तरह से गॉड हाइपोथेसिस एक सर्वाइवल मैकेनिज्म बन गया। प्रिमिटिव पीपल इन्वेंटेड गॉड्स टू एक्सप्लेन मिस्ट्रीज ऑफ नेचर। नाउ वी हैव साइंस। यानी मजहब एक प्रिमिटिव साइंस थी। जहां हर चीज का एक्सप्लेनेशन गॉड के जरिए दिया

जाता था। लेकिन जैसे-जैसे हमारी नॉलेज बढ़ती गई, साइंस तरक्की करती गई, वैसे-वैसे गॉड कीेंस कम होती गई। डॉकिंस इसको गॉड ऑफ द गैप्स थ्योरी कहता है। जहां गॉड सिर्फ उन गैप्स को फिल करता है जहां साइंस अभी तक नहीं पहुंच पाई। द गॉड ऑफ द गैप्स इज अ लेजी गॉड श्रिंकिंग एस साइंस प्रोग्रेसेस। डॉकिंस मिरेकल्स यानी मौजात के ऊपर भी बात करता है। वो कहता है कि अक्सर औकात मजहबी लोग मिरेकल्स को एज अ प्रूफ ऑफ रिलजन के तौर पर प्रेजेंट करते हैं। लेकिन उसके मुताबिक हर मिरेकल या तो कोइंसिडेंस या फिर एक एग्जाजरेशन यानी कि एक अनगढ़त कहानी होती है। साइंस हर चीज को

टेस्ट करने की बात करती है। जबकि मजहब यह कहता है कि हर चीज को आंखें बंद करके सिर्फ बिलीव कर लो। सिर्फ इस चीज पर ईमान ले आओ। अगर कोई क्लेम टेस्ट नहीं हो सकता तो वह नॉलेज नहीं सिर्फ बिलीफ है। डॉकिंस क्योंकि एक रैशनलिस्ट है, एक साइंटिफिक बंदा है। लिहाजा वह कहता है कि इस कायनात को समझने के लिए और बनाने के लिए आपको किसी भी सुपर नेचुरल पावर की जरूरत नहीं है। यह कायनात वजूद में आई है एवोल्यूशन के प्रोसेस के जरिए, नेचुरल लॉज़ के जरिए। यही नेचुरल लॉज़ आगे बढ़ती चली जाएंगी। और इंसान इसी तरीके से इवॉल्व करता चला जाएगा। रिचर्ड डॉकिंस ने अपनी इस किताब

में उन तमाम क्लासिकल और ट्रेडिशनल आर्गुमेंट्स का जवाब दिया है जो मुख्तलिफ थियोलॉजियंस और फिलॉसोफी खुदा की एकिस्टेंस को प्रूफ करने के लिए देते हैं। सबसे पहले वो थॉमस एक्वस के फाइव क्लासिकल प्रूफ्स का जिक्र करता है। ये वो आर्गुमेंट्स हैं जो क्रिश्चियन थियोलॉजी में सबसे ज्यादा पॉपुलर है। पहला है द अनमूव्ड मूवर। एक्वेनस कहता था कि हर चीज जो मूव करती है वो किसी ना किसी ने तो मूव की होगी। कोई भी चीज खुद से मोशन में नहीं आ सकती। तो अगर यूनिवर्स मूव कर रही है तो कोई फर्स्ट मूवर जरूर होगा और वो है खुदा। इस बात का जवाब डॉकिंस बहुत ही सिंपल और

सादे अल्फाज़ में देता है कि अगर हर चीज को कोई ना कोई मूव करता है तो फिर खुदा को किसने मूव किया है? अगर खुदा खुद से एक्सिस्ट कर सकता है तो यह कायनात भी खुद से वजूद में आ सकती है। सेकंड है द अनकॉज्ड कॉज। थॉमस एक्वस ने कहा था कि दुनिया में कोई भी चीज खुद से एक्सिस्ट नहीं होती। हर इफेक्ट का कोई ना कोई कॉज होता है और वह कॉज खुद किसी और कॉज का रिजल्ट होता है। यानी हर चीज किसी और से स्टार्ट होती है। अगर हम इस चेन को ट्रेस करते जाएं तो हम एक पॉइंट पर पहुंचते हैं जहां कोई पहला कॉज होना चाहिए। और एक्वेनस के मुताबिक वो पहला कॉज खुदा है। लेकिन

डॉकिंस कहता है कि यह थ्योरी सुपरफिशियली तो स्मार्ट लगती है। लेकिन लॉजिकली देखा जाए तो यह अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती। अगर हम कह रहे हैं कि हर चीज के पीछे एक कॉज है। तो फिर खुदा के पीछे कौन सी कॉज थी? अगर खुदा के पीछे कोई कॉज नहीं तो फिर इस कायनात के पीछे भी किसी कॉज का होना जरूरी नहीं है। इफ एवरीथिंग नीड्स अ कॉज देन गॉड मस्ट आल्सो नीड अ कॉज। इफ गॉड डजंट नीड अ कॉज देन व्हाई शुड द यूनिवर्स। तीसरा है द कॉस्मोलॉजिकल आर्गुमेंट। थॉमस एक्वर्स और कई और फिलॉसफर्स का कहना था कि एक वक्त ऐसा जरूर होगा जब कुछ भी फिजिकल

एक्सिस्ट नहीं करता था। ना मैटर, ना एनर्जी, ना टाइम और ना स्पेस। लेकिन आज क्योंकि हम देख रहे हैं कि फिजिकल चीजें मौजूद हैं। लिहाजा कोई टाइम ऐसा जरूर होगा जब एक नॉन फिजिकल एंटिटी इन चीजों को वजूद में लेकर आई और यह नॉन फिजिकल हस्ती दरअसल खुदा है। डॉकिंस जवाब में कहता है कि क्वांटम फिजिक्स और कॉस्मोलॉजी ने यह प्रूफ किया है कि वैक्यूम यानी खाली जगह भी खाली नहीं होती। वो एनर्जी और क्वांटम पार्टिकल से भरी होती है जो स्पॉनटेनियसली अपीयर और डिसअपीयर करते हैं। यानी नेचर के अंदर खुद एक मैकेनिज्म मौजूद है जो समथिंग फ्रॉम नथिंग को पॉसिबल बनाता है और इसमें

किसी डिवाइन इंटरवेंशन की जरूरत नहीं। यानी अगर यूनिवर्स का एक स्टार्ट पॉइंट था भी तब भी उसके लिए गॉड को लाना जरूरी नहीं है। बिग बैंग थ्योरी और मॉडर्न फिजिक्स यह समझा सकती है कि कैसे एक इंफिनिटली डेंस पॉइंट सिंगुलरिटी से स्पेस, टाइम और मैटर का एक्सपेंशन स्टार्ट हुआ था। चौथा है द आर्गुमेंट फ्रॉम डिग्री। थॉमस एक्वेनस ने कहा था कि हम दुनिया में हर चीज को डिग्री यानी लेवल के हिसाब से जज करते हैं। कुछ लोग अच्छे होते हैं, कुछ बुरे, कुछ चीजें ज्यादा खूबसूरत होती हैं। कुछ कम, कुछ आइडियाज ज्यादा परफेक्ट लगते हैं, कुछ कम

परफेक्ट। तो अगर हर चीज में यह ग्रेडेशन है, यह बेहतर और बदतर का स्केल है तो जरूर कोई मैक्सिमम परफेक्शन का सोर्स भी होना चाहिए। जिससे हम कंपैरिजन कर सकें। और एक्वेनास के मुताबिक वो मैक्सिमम परफेक्शन का सोर्स गॉड है। यानी गॉड इज द अल्टीमेट मेजर ऑफ गुडनेस, ट्रुथ एंड परफेक्शन। लेकिन डॉकिंस का कहना है कि यह आर्गुममेंट पूरी तरीके से मेटाफोरिकल मिसअंडरस्टैंडिंग का नतीजा है। वो कहता है कि एक्वेनस ने एक साइकोलॉजिकल ऑब्जरवेशन को मेटाफिजिकल रियलिटी बना दिया। यानी सिर्फ इसलिए कि हम डिग्रीज को कंपेयर करते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उनका कोई

डिवाइन स्टैंडर्ड एक्सिस्ट करता है। यानी हम सब जानते हैं कि कोई चीज बेटर है वो एक रिलेटिव जजमेंट है ना कि इस बात का कोई प्रूफ या कोई एब्सोल्यूट बेस्ट एक्सिस्ट करता है। पांचवा है द टिलियोलॉजिकल आर्गुमेंट। थॉमस एक्वर्स ने अपने दौर में कहा था कि इस कायनात में मौजूद हर चीज खासतौर पर लिविंग ऑर्गेनिज्म्स को देखकर लगता है कि इन्हें किसी ने स्पेशली डिजाइन किया है। इनका स्ट्रक्चर, बैलेंस और प्रसीजन देखकर लगता है कि यह सब रैंडमली नहीं हो सकता। उसने एक एग्जांपल दी थी कि जैसे एक एरो अपने आप टारगेट की तरफ नहीं जाता बल्कि कोई आर्चर होता है जो उसे एम

करता है। इसी तरह दुनिया के अंदर जो ऑर्डर और पर्पस नजर आता है वो भी किसी इंटेलिजेंट आर्चर यानी गॉड का डिजाइन है। रिचर्ड डॉकिंस के मुताबिक यह आर्गुमेंट हिस्टोरिकली सबसे ज्यादा सिडक्टिव रहा है। लेकिन काफी डेंजरस भी है। क्योंकि यह इंसान की अंडरस्टैंडिंग को, उसकी इंटेलिजेंस को डम डाउन कर देता है। वह कहता है कि जब हम इस यूनिवर्स की कॉम्प्लेक्सिटी को देखते हैं तो हमें लगता है कि इसके पीछे कोई ना कोई डिजाइनर जरूर मौजूद होगा। इतनी कॉम्प्लेक्स यूनिवर्स आखिर कैसे वजूद में आ सकती है? लेकिन उसके मुताबिक नेचर का डिजाइन एक नेचुरल प्रोसेस

का रिजल्ट है ना कि किसी कॉन्शियस माइंड का। इसको वो डार्विन की थ्योरी ऑफ़ एवोल्यूशन से भी रिलेट करता है और कहता है कि डार्विन ने इस थ्योरी ऑफ़ डिज़ाइन को ना बिल्कुल डिस्मेंटल कर दिया था। क्योंकि उसने लाइफ की डायवर्सिटी और कॉम्प्लेक्सिटी को नेचुरल प्रोसेस प्रूफ किया है जिसे हम नेचुरल सिलेक्शन भी कहते हैं। उसका कहना है कि इस दुनिया में जितने भी एविडेंस हैं चाहे वो फॉसिल रिकॉर्ड्स हो, डीएनए हो, बायोलॉजिकल सैंपल्स हो वो सब इस बात को इंडिकेट करते हैं कि यह कायनात किसी डिवाइन इंटरवेंशन से नहीं बल्कि एववोल्यूशनरी प्रोसेस से ही आगे

बढ़ेगी। इसके अलावा जब एथिक्स और मोरालिटी की बात आती है तो मजहबी लोग यह कहते हैं कि मजहब हमें अखलाकियात सिखाता है। इट गिव्स अस एथिक्स एंड मोरालिटी। इस बात का जवाब भी डॉकिंस देता है। वो लिखता है कि क्या तुम वाकई यह कहते हो कि तुम सिर्फ इसलिए अच्छे इंसान बनने की कोशिश करते हो ताकि तुम्हें खुदा की तरफ से रिवॉर्ड मिले, इनाम मिले या तुम उसकी सजा से बच सको। उसका कहना है कि अगर इंसान का अच्छे बनने का मोटिव सिर्फ रिवॉर्ड और पनिशमेंट है तो यह मोरल गुडनेस नहीं बल्कि एक ट्रांजैक्शन है, एक डील है जिसमें तुम वर्च्यू के बदले जन्नत खरीद रहे हो।

डॉकिंस के मुताबिक असली मोरालिटी वो है जब इंसान किसी मजहब, किसी खुदा से डरे बगैर इंस्टिंक्टिवली अपनी रूह के अंदर से अच्छे काम करे। उसका आर्गुमेंट यह है कि मजहब ने मोरालिटी को एक सर्वेलेंस सिस्टम बना दिया है। एक डिवाइन कैमरा है जिसके जरिए खुदा हर इंसान को हर वक्त देख रहा है। उसको मॉनिटर कर रहा है और वो शख्स जो भी काम करता है अच्छा या बुरा उस खुदा के डर से करता है। इसको वो नाम देता है सीसीटीवी गॉड। उसका आर्गुममेंट बड़ा सिंपल है कि भाई यह सीसीटीवी गॉड से डरने की बजाय अगर तुमने एक्ट करना है ना मोरली तो वह अपने अंदर से करो ना कि किसी डर से। रिचर्ड

डॉकिंस के मुताबिक मोरालिटी, अखलाकियात, इंसान के इकदार खुदा के बगैर भी एक्सिस्ट कर सकते हैं। असली मोरल इंसान वो है जो अच्छा इसलिए बनता है क्योंकि उसे लगता है कि अच्छा होना सही है ना कि इसलिए कि कोई उसे ऊपर से देख रहा है। यह दोस्तों कमाल की बात है जिससे मैं कंप्लीटली एग्री करता हूं। यहां पर मुझे द ग्रेट फिलॉसफर इमैनुअल कांड की भी याद आ रही है। उसने कहा था कि एक्ट ओनली अकॉर्डिंग टू दैट मैक्सिमम वेयर बाय यू कैन एट द सेम टाइम विल दैट इट शुड बिकम अ यूनिवर्सल लॉ। किस्सा मुख्तसर यह कि सवाब और गुनाह के चक्कर में ना फंसे रह। अगर आपने कोई अच्छा

काम करना है तो उस काम के लिए करें। अपने अंदर की सेटिस्फेक्शन के लिए करें। इनफैक्ट सेटिस्फेक्शन के लिए भी नहीं। वो काम सिर्फ इसलिए करें क्योंकि आप वो काम करना चाहते हैं विदाउट वरिंग अबाउट एनी ट्रांजैक्शन कि इस काम को करने से आपको जन्नत में जगह मिल जाएगी या आप दोजख की आग से बच जाएंगे। एस सून एस यू हैव दिस फीलिंग वो अगर अच्छा काम भी है ना तो वो अनएथिकल बन जाता है। और आखिर में रिचर्ड डॉकिंस की एक और जबरदस्त बात जिसके बारे में आप जरूर सोचिएगा। वो लिखता है कि वी आर ऑल एथस्ट अबाउट मोस्ट ऑफ द गॉड्स दैट ह्यूमैनिटी हैज़ एवर बिलीव्ड इन। सम ऑफ अस

जस्ट गो वन गॉड फर्दर। यानी असल में हर इंसान किसी ना किसी गॉड को नहीं मानता। अगर हम तारीख को देखें तो इंसानियत ने हजारों खुदाओं पर यकीन रखा। लेकिन आज के बिलीवर्स उन सबको झूठा या इमेजिनरी समझते हैं। वो सिर्फ अपने खुदा को सच मानते हैं। मुसलमानों के लिए अल्लाह ही एक वाहिद और सच्चा खुदा है। क्रिश्चियंस के लिए ट्रिनिटी से ऊपर कुछ भी नहीं। हिंदूस के लिए ब्रह्मन इज द अल्टीमेट रियलिटी। यह सब लोग सिर्फ अपने ही खुदा को सच्चा मानते हैं। हम सबके लिए अपना-अपना मजहब, अपने-अपने खुदा सबसे बेहतरीन है, सबसे बेस्ट हैं। लेकिन डॉकिंस यह पॉइंट आउट

करता है कि अगर तुम इतने सारे खुदाओं को रिजेक्ट कर चुके हो तो तुम भी अपनी जगह एथिस्ट ही हो। बस फर्क इतना है कि एक एथिस्ट एक खुदा और आगे जाकर उस लास्ट डिवाइन क्लेम को भी क्वेश्चन करता है। उसका कहना है कि लोग समझते हैं कि एथिज्म एक अलग और डेंजरस आईडियोलॉजी है। जबकि सब ईमान वाले कहीं ना कहीं एथिस्ट होते हैं। क्योंकि वो सारे कहीं ना कहीं अलग-अलग खुदाओं को रिजेक्ट करते हैं। एक मुस्लिम जीसस को खुदा नहीं मानता। एक क्रिश्चियन अल्लाह को नहीं मानता। एक हिंदू जीसस को नहीं मानता तो सब अपनी-अपनी हद तक एथिस्ट हैं। डॉकिंस बड़ी इंपॉर्टेंट बात करता है।

वो कहता है कि यह जो सारे रिलीजियस बिलीफ सिस्टम है ना यह दरअसल कल्चरल कंडीशनिंग का नतीजा है। आप जिस मजहब में पैदा होते हैं अक्सर औकात उसी मजहब में मर जाते हैं। अगर मैं किसी और दौर में पैदा होता, इजिप्ट में पैदा होता या ग्रीस में पैदा होता तो मेरा ग्रीक खुदाओं पर ही ईमान होता। मैं एक मुसलमान घराने में पैदा हुआ। लिहाजा इसी वजह से मेरा दीन मेरा रिलीजन मुसलमान है। इसी तरह एक हिंदू हिंदू इसलिए क्योंकि वो एक हिंदू घराने में पैदा हुआ है। बचपन से ही हमें एक फिक्स रिलीजियस सिस्टम के अंदर कैद कर लिया जाता है। आप उसके बाहर नहीं सो सकते। कुछ लोग जो पढ़

लिख जाते हैं, जिनका एक्सपोज़र ज्यादा होता है, जो ट्रैवल करते हैं, जो रीड करते हैं, दे स्टार्ट क्वेश्चनिंग थिंग्स। वो डाउट करना शुरू कर देते हैं और बिल आखिर आहिस्ताआहिस्ता स्लोली एंड ग्रेजुअली रियलिटी तक पहुंच जाते हैं। याद रखें यह बात कोई भी डिसाइड नहीं कर सकता कि कौन सा रिलजन बेस्ट है, कौन सा खुदा बेस्ट है। कोई साइंटिफिक टेस्ट, कोई डिबेट, कोई भी आर्गुममेंट इस चीज को साबित नहीं कर सकता कि यह मजहब और यह खुदा ही अल्टीमेट रियलिटी है। डॉकिंस चाहता है कि इंसान अपने रिलिजन को इसलिए ना माने कि उसके मां-बाप मानते हैं बल्कि इसलिए माने कि

उसने खुद समझकर उसे एक्सेप्ट किया है। वो लिखता है कि रिलिजन ने इंसान के दिमाग में एक गॉड शेप्ड गैप बना दिया है। एक ऐसी साइकोलॉजिकल जगह जहां हम मकसद और कंफर्ट ढूंढते हैं। लेकिन डॉकिंस के नजदीक यह गैप रियल नहीं बल्कि मैनमेड है। और इस गैप को साइंस, आर्ट और ह्यूमन एम्पैथी से फिल किया जा सकता है। आखिर में वो यह लिखता है कि खुदा का इस दुनिया में एब्सेंस दरअसल इंसान के लिए एक ओपोरर्चुनिटी है। एक आजादी है। सोच की आजादी, मकसद की आजादी, सवाल पूछने की आजादी और दुनिया को लॉजिक से समझने की आजादी। आखिर में दोस्तों, मैं अपना पॉइंट ऑफ व्यू आपको बता देता हूं।

मैं बाय बर्थ एक मुस्लिम हूं। और आज भी एक मुसलमान हूं। लेकिन मैं एक प्रोग्रेसिव, रैशन सोच वाला, मॉडर्न, फॉरवर्ड लुकिंग मुसलमान हूं। मेरे लिए सबसे मुकद्दस, सबसे सीक्रेट चीज इंसान की सोच है। हमारी विल टू पावर है। हमारी पावर ऑफ रीजनिंग है। हमारी क्यूरियोसिटी है। इंसान के जेहन से बढ़के, इंसान के इंटेलेक्ट से बढ़के इस दुनिया में कोई चीज नहीं है। मेरा असल ईमान इसी बात के ऊपर है। अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि आपका खुदा पे यकीन है या नहीं? और मेरा जवाब यह होता है कि यस आई डू बिलीव इन गॉड। बट आई बिलीव इन स्पिनोजास गॉड। लेकिन यह स्पिनोजास गॉड

कौन है? इसको जानने के लिए मेरी वीडियो आपने जरूर देखनी है जो मैंने स्पिनोजा के ऊपर बनाई थी। मुझे रिलीजियस डॉग्मटिज्म, तोहमपरस्ती, मजहब परस्ती बिल्कुल पसंद नहीं है। आई एम अ फिलॉसफर बाय नेचर। मुझे विज़डम पसंद है। मुझे हाई इंटेलेक्ट गुफ्तगू पसंद है। मुझे अपने जेहन का इस्तेमाल करने में बहुत मजा आता है। एंड दैट इज माय मैसेज टू ऑल द रिलीजियस पीपल एंड द मुस्लिम्स अक्रॉस द ग्लोब। क्योंकि जितना आप जेहन का इस्तेमाल करेंगे ना उतना ही आप रियलिटी के करीब तर पहुंच जाएंगे। मेरी बातों के बारे में जरूर सोचिएगा। अंटिल नेक्स्ट टाइम, गुड बाय।

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