हियर यू गो। [संगीत] देखिए माय डियर बुक बडीज इस्लाम का जो मेन आईडिया है ना जो सबसे बड़ा आईडिया है वो यह है कि अल्लाह एक है। मुस्लिम्स बिलीव इन द वननेस ऑफ गॉड इस आईडिया को मोनोथिज्म कहते हैं। किसी शख्स को अगर मुसलमान कहलाना है ना तो उसके लिए सबसे इंपॉर्टेंट बात यह है कि वो अल्लाह की तौहीद पर ईमान लाए। यह इस्लाम का सेंट्रल बिलीफ है। इस्लाम के नजदीक सबसे बड़ा गुनाह शर्क है। यानी अल्लाह के नजदीक किसी और को शरीक करना। चाहे वह शराकत इबादत में हो, दुआओं
में हो या अल्लाह के कामों में। इट इज अबब्सोलुटली फॉरबिडन। लेकिन दोस्तों अगर आप मुस्लिम सोसाइटीज को ऑब्जर्व करें ना तो यहां पर एक बहुत ही यूनिक फिनोमना फॉलो होता है। तौहीद की स्ट्रिक्ट टीचिंग्स के बावजूद इस्लामिक सोसाइटीज में एक फोक इस्लाम एक्सिस्ट करता है जो नस्ल दर नस्ल एक ट्रेडिशन की तरह आवाम में पास ऑन हो रहा है। इसी फोक इस्लाम का एक पहलू है जिसे पीरी मुरीदी कहते हैं। इस इक्वेशन या इस रिलेशनशिप में होता यह है कि एक शख्स होता है जिसे पीर कहते हैं। लोग गुमान करते हैं कि इस शख्स के पास विज़डम है। अल्लाह की रजा है। कुछ मौजात हैं और अपनी
नेकियों की वजह से इस शख्स की दुआओं में इतनी ताकत है कि डायरेक्ट अल्लाह इसकी बात सुनता है। मुरीद वो शख्स होता है जो इस पीर के पास उसका फज़ल लेने जाता है। उसके पास अपनी आस लेकर जाता है। उससे अपने बिहाफ पर दुआएं करवाता है। और उस पीर की शख्सियत के जरिए रूहानी सुकून हासिल करने की कोशिश करता है। लिहाजा लोग अक्सर अल्लाह से डायरेक्ट मांगने की बजाय इन पीरों के मजारों पे जाते हैं। इनकी दरगाहों पे हाजिरी देते हैं। इनके आस्तानों पे जाकर हाजिरी देते हैं। दुआएं करवाते हैं ताकि इनकी ख्वाहिशात पूरी हो जाए। पाकिस्तान में भी यह जो पीरी मुरीदी
का कल्चर है ना यह बहुत आम है। लेकिन सवाल यह है कि यह आखिर शुरू कहां से हुआ? क्या इसका क्लासिकल सूफिज्म से कोई कनेक्शन है? और अगर है तो फिर यह सूफिज्म कैसे फैला? पाकिस्तान के सोशल फैब्रिक में पीर के पास इतनी पावर इतना इन्फ्लुएंस कैसे हुआ? इस पीरी मुरीदी का फ्यूडलिज्म से क्या ताल्लुक है? यह पीरी मुरीदी ये मजारात पर हाजिरी देना इनकी पाकिस्तान के सोशल सिस्टम में क्याेंस है? यह वह सब सवाल हैं जिनका आज मैं आपको जवाब दूंगा और इस जवाब को देने में मेरी मदद करेंगे के अजीज। जिन्होंने एक जबरदस्त किताब लिखी है जिसका टाइटल है रिलीजन लैंड एंड पॉलिटिक्स इन
पाकिस्तान। अ स्टडी ऑफ पीरी मुरीदी। यह एक बड़ी जबरदस्त और वेल रिसर्च किताब है जो आपकी जेहन की गिरें खोल देती है। देखिए दोस्तों, किसी भी मुल्क के सोशल सिस्टम को चलाने के लिए कॉन्स्टिट्यूशन का इस्तेमाल होता है, पार्लियामेंट का इस्तेमाल होता है, लॉज़ का इस्तेमाल होता है। यही इंस्टीटशंस पॉलिसीज बनाते हैं, लॉज़ बनाते हैं, कानून बनाते हैं जिसके हिसाब से मुल्क चलता है। लेकिन अगर आपने पाकिस्तान जैसे यूनिक कंट्री को समझना है ना, तो आपको कुछ और पैरेलल सिस्टम्स को भी समझना होगा। पाकिस्तान के सोशल कॉन्टेक्स्ट में कुछ ऐसे डीप डार्क पैरेलल इंस्टीटशंस हैं
जो दरअसल इस मुल्क को चलाते हैं। ऐसा ही बहुत ही पावरफुल और इन्फ्लुएंशियल इंस्टीट्यूशन है यह पीरी मुरीदी का सिस्टम। देखिए दोस्तों एक पीर और मुरीद के दरमियान ना एक स्पिरिचुअल रिलेशनशिप होता है। जहां पीर या मुर्शद एक स्पिरिचुअल गाइड होता है और मुरीद उसका फॉलोअर। दिखने में तो सिर्फ यह एक रूहानी ताल्लुक लगता है, लेकिन यह सिर्फ इबादत और अकीदत तक महदूद नहीं है। बल्कि यही ताल्लुक पाकिस्तान की सोसाइटी, इकोनॉमिक्स और पॉलिटिक्स को कंट्रोल करता है। और जब तक हम इसे डिकोड नहीं करेंगे ना हम कभी भी पाकिस्तान के मुआशरे को समझ नहीं पाएंगे।
देखिए दोस्तों, केके अजीज की ये जो किताब है ना, इसका सेंट्रल आईडिया यह है कि ये जो मजारात है, ये जो पीरी मुरीदी का सिस्टम है ना, इसका बहुत ही गहरा कनेक्शन है पाकिस्तान के लैंड और पॉलिटिकल पावर से यानी कि जमीन और सियासत से। एक पीर यूजुअली जमींदारी या लैंड होल्डिंग सिस्टम का हिस्सा होता है। कभी कबभार तो वह इतना ताकतवर होता है कि उसकी मर्जी के बगैर पाकिस्तान में इलेक्शन भी नहीं हो सकते। यह पीर सिर्फ स्पिरिचुअल गाइड नहीं होते बल्कि यह आपकी जमीन, आपके वोट इवन आपके पॉलिटिशियंस के ऊपर काबिज होते हैं। इसका आप एक टेस्ट कर लीजिएगा कि आपके मुल्क में
कोई भी पावरफुल शख्स चाहे वो पॉलिटिशियन हो, कोई बड़ा अदाकार हो या कोई भी सेलिब्रिटी हो, उसका कोई ना कोई स्पिरिचुअल गाइड यानी कि पीर जरूर होता है। और यूजुअली यह शख्स उस पीर की मर्जी के बगैर कुछ नहीं करता। तो चल पहले जरा इस सिस्टम की हिस्ट्री के ऊपर नजर डालते हैं। और इसको समझने के लिए हमें साउथ एशिया के सूफी पास में जाना होगा। देखिए यह बात बिल्कुल दुरुस्त है कि साउथ एशिया यानी कि ये जो पाकिस्तान, इंडिया, बांग्लादेश का रीजन है ना इसमें इस्लाम दरअसल इन सूफी बुजुर्गों ने फैलाया। उन्होंने अपने खूबसूरत मिजाज और इस्लामिक टीचिंग्स के
जरिए लोगों को अपनी तरफ अट्रैक्ट किया। जिससे लोग लाखों करोड़ों की तादाद में मुसलमान हुए। लेकिन इन सूफी बुजुर्गों ने सिर्फ इस्लाम नहीं फैलाया, बल्कि इन्हीं के जरिए यह पीरी- मुरीदी का सिस्टम हमारी सोसाइटी में आहिस्ता-आहिस्ता पेनिट्रेट करता गया। पाकिस्तान में मौजूद पीर और गद्दी नशी मेजरली चार डिफरेंट सिलसिलों से पाकिस्तान में आबाद हैं। इसमें शामिल है सुरवर्दी, कादरी, चिश्ती और नक्शबंदी। ये लोग मिडिल ईस्ट से आए और आहिस्ता-आहिस्ता साउथ एशिया में इस्टैब्लिश हुए। लेकिन आखिर ये सिलसिला क्या होता है? सिलसिला का वर्ड यहां ऑर्डर को एक्सप्लेन करने के लिए
यूज़ किया गया है। जैसे इंग्लिश में कहते हैं ना द ऑर्डर ऑफ सक्सेशन। यानी एक आदमी का बेटा, फिर उसका बेटा, फिर उसका बेटा। उर्दू में इसी को सिलसिला कहा जाता है। इसीलिए जब हम इस पीरी मुरीदी सिस्टम के बारे में बात करते हैं ना तो इन चार मेन सिलसिलों का भी जिक्र करते हैं। सोहरवर्दी सिलसिला असल में बगदाद से आया था। लेकिन साउथ एशिया में मुल्तान इसका सबसे बड़ा मरकज बना। आज भी इसका इन्फ्लुएंस साउथ पंजाब, मुल्तान, भावलपुर, उच्च शरीफ में बहुत ज्यादा है। सोहरवर्दी बुजुर्ग जैसे कि बहाउद्दीन जिक्रिया की दरगाह मुल्तान में मौजूद है जिसको हर साल लाखों लोग
विजिट करते हैं। अगर कादरी सिलसिले की बात करें तो उसका ताल्लुक शेख अब्दुल कादिर जिलानी से है। पाकिस्तान और इंडिया में इसके इन्फ्लुएंस पंजाब और सिंध दोनों जगह पे हैं। लाहौर में मौजूद जो दाता साहब हैं वो भी कादरी सिलसिले से ही जुड़े हुए हैं। अगर चिश्ती सिलसिले की बात की जाए तो साउथ एशिया में शायद यह सबसे ज्यादा इन्फ्लुएंशियल है। स्पेशली इंडिया में। पाकिस्तान में भी चिश्ती इन्फ्लुएंस कहीं-कहीं पंजाब और सिंध के शराइ में पाया जाता है। अगर नक्शबंदियों की बात की जाए तो इसका एक्चुअल मरकज भी सेंट्रल एशिया था। आजकल इसका इन्फ्लुएंस पाकिस्तान में
खैबर पख्तून खान, कश्मीर और अफगानिस्तान में आपको नजर आएगा। केके अजीज लिखते हैं कि ये चार ऑर्डर्स अलग-अलग तरीकों से साउथ एशिया में इस्लाम की रूट स्ट्रांग करने आए थे। कुछ ने आवाम के साथ डायरेक्ट कांटेक्ट बनाया। जैसे कि चिश्ती और कदरी और कुछ ने रूलर्स के साथ अपने आप को एफिलिएट किया जैसे कि सोहरवर्दी और नक्शबंदी। इन्हीं के जरिए यह जो पीर और मुरीद का रिलेशनशिप है ना, यह इंस्टीट्यूशनलाइज हुआ। सो, यह जो मजारात, दरबार और पीरों का सिस्टम है ना, यह तकरीबन 7 800 साल पुराना है। पाकिस्तान बनने से सदियों पहले यह सिस्टम यहां पर
जड़े जमा चुका था। देखिए दोस्तों, यह जो सारा सूफिज्म का सिलसिला था या जो सिस्टम था ना, इसकी ऑर्गेनाइजेशन में दो ऐसे फीचर्स हैं जो सोसाइटी में आज भी कायम है। यही दो फीचर्स हैं जो आज की पॉलिटिक्स को भी शेप अप करते हैं और ना सिर्फ पॉलिटिक्स बल्कि ये पाकिस्तान की आवाम की नफ्सियात के साथ भी खेलते हैं। सबसे पहला फीचर यह था कि ये जो पूरा सिस्टम था ना, यह एक अथॉरिटेरियन प्रिंसिपल पर चलता था। शेख या लीडर को बगैर किसी सवाल जवाब के ना सिर्फ एक्सेप्ट किया जाता बल्कि उसकी रिस्पेक्ट भी की जाती। हर सक्सेसर या लीडर का बेटा ऑटोमेटिकली नेक्स्ट लीडर बनता। यानी
विलायत उसी के डिसेंडेंट्स में जाती। वो बेटा अच्छा हो, बुरा हो, उसमें कुछ भी क्वालिटीज हो, लेकिन वो गद्दी नशीन है। लिहाज़ा उसके पास भी एब्सोल्यूट पावर्स होती थीं। वो कुछ भी डिसीजंस ले, कोई भी फैसला करे मुरीदों को सर झुका के फॉलो करना होता था। मजहब और रिवायत का सहारा लेते हुए इन लोगों ने मुआशरे में एक ऐसा डिक्टेटर खड़ा किया, जो मजहब के जरिए अपने इन्फ्लुएंस को इतना तगड़ा करता गया, दैट नो वन कुड क्वेश्चन हिम। याद रखें दोस्तों कि जब पावर का मिलाप होता है ना मजहब से तो फिर इट बिकम्स अ लीथल कॉम्बिनेशन। और दूसरा यह कि कब्रों पर मजार बनाने का ऐसा
कल्ट पैदा हुआ जो आज तक खत्म नहीं हो सका। वली चाहे जिंदा हो या मर गया हो, उसकी बरकतें और करामतें हमेशा कायम रहती हैं। इन करामात को भोले और अनपढ़ लोग आहिस्ता-आहिस्ता मौजों में कन्वर्ट कर देते हैं। और इन्हीं मौजात की एक्सपेक्टेशन में, उम्मीदों में, एंटीिसिपेशन में बेचारे भोले अनपढ़ लोग इन मजारात पर हाजिरी देते हैं। वहां जाकर दुआएं करते हैं ताकि वो वली अल्लाह के दरबार में उनके बिहाफ पे सिफारिश कर सके। देखते ही देखते यह दरबार लोगों की जिंदगियों का हिस्सा बन गए। इस दौर में सूफी पोएट्री ने भी बहुत इंपॉर्टेंट रोल प्ले किया। पंजाबी, सिंधी और उर्दू
पोएट्री में सेंट्स के मिरेकल्स को मेंशन किया जाता और इन्हें सेलिब्रेट किया जाता। इस सूफी कल्चर की जो शायद सबसे इनटॉक्सिकेटिंग प्रोडक्ट है ना वो है कवाली। कवाली ने लोगों को क्या खूब अट्रैक्ट किया। कवाली का कलाम, उसकी बीट और उसको गाने के तरीके ने लोगों को मस्त कर दिया। और आहिस्ता-आहिस्ता यह शाइन सेंटर्ड इस्लाम बहुत ही पॉपुलर बनता गया। शुरू में यह जो दरबारों का कल्चर था ना, यह सुन्नियों का था। शिया लोगों की रिप्रेजेंटेशन इसमें बहुत कम थी। लेकिन जब ईरान की पॉलिटिक्स स्ट्रांग हुई तो आहिस्ता-आहिस्ता साउथ एशिया में शिया
श्राइंस भी बनने लगे। और अब चाहे सुन्नी हो या शिया यह दरबार कल्चर दोनों ही मसलकों का हिस्सा बन गया। केके अजीज अपनी इस किताब में लिखते हैं कि जब मुसलमानों ने इंडिया में अपनी एंपायर बनाई ना तो उन्होंने सिर्फ तलवार से रूल नहीं किया बल्कि लोगों के दिल जीतने के लिए सूफी बुजुर्गों और मजारात का भी सहारा लिया। सूफी पीर और उनके मजार आवाम के लिए स्पिरिचुअल सेंटर्स थे। उनकी इतनी रिस्पेक्ट थी कि रूलर्स भी उनकी दुआओं और उनके मशवरों के मोहताज हो गए। आवाम हमेशा की तरह भोली इस बात पर ईमान रखने लगी कि जो बादशाह उस पीर का मुरीद है ना उस पर
समझो अल्लाह का हाथ है। इसीलिए इन बादशाहों ने सूफी दरगाहों को स्पोंसर करना शुरू किया। इन्होंने खुद मजारात बनवाए। अपनी जागीरें दी और उनकी औलाद को गद्दी नशीन के तौर पर एस्टैब्लिश किया। लिहाजा यह जो पीरी मुरीदी है ना यह सिर्फ एक स्पिरिचुअल रिलेशनशिप नहीं रहा बल्कि इन बादशाहों ने अपने पॉलिटिकल इन्फ्लुएंस को एडवांस करने के लिए इन पीरों का सहारा लिया। चाहे दिल्ली सल्तनत के रूलर्स हो या मुगल एपरर्स दोनों ने मजारात का सहारा लिया ताकि आवाम को अपने साथ रख सकें। क्योंकि वो इस फार्मूला को जान गए थे कि आवाम को ब्लैकमेल करना है ना तो रिलीजन से
अच्छा कोई टूल नहीं हो सकता। फिर जब मुसलमानों का डिक्लाइन हुआ और यहां पर ब्रिटिश आए ना तो वह भी इस बात को बहुत ही जल्दी समझ गए कि अगर आवाम को कंट्रोल करना है तो यह जो दरबार हैं ये जो पीर हैं इनको अपने साथ मिलाना बहुत जरूरी होगा। लिहाजा गोरे ने इन पीरों और सूफियों को रिस्पेक्ट देना शुरू की। जब यह पीर किसी गोरे कमिश्नर के ऑफिस में जाते तो उन्हें बड़ी ही रिस्पेक्ट से बिठाया जाता था। उन्हें अप्रिसिएशन के सर्टिफिकेट्स दिए जाते थे। उनकी सर्विज के बदले उन्हें सोना चांदी दिया जाता था। महंगे ड्रेसेस गिफ्ट किए जाते थे। सिर्फ यही नहीं बल्कि उन्हें
लाइसेंस्ड वेपंस भी दिए जाते थे। अगर कभी उन पर कोई केस हो जाता, तो उन्हें कोर्ट आने की भी जरूरत नहीं थी। उनके खिलाफ सारे केसेस कोर्ट खुद ही खत्म कर देता था। यह सब सिर्फ इसलिए था ताकि पीर अपनी इन्फ्लुएंस का इस्तेमाल करते हुए आवाम को ब्रिटिश हुकूमत के लिए लॉयल बनाएं। अंग्रेजों के दौर में यह जो पूरा पैरेलल सिस्टम है ना यह मजीद मजबूत हुआ और इसकी मजबूती आज तक कायम है। आगे बढ़े तो अंग्रेजों के बाद वो दौर आया जब इंडिया में कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसे पॉलिटिकल पार्टीज आहिस्ता-आहिस्ता पॉपुलर हो रही थी और अपनी आजादी के लिए जंग लड़
रही थी। पाकिस्तान के आईडिया को अप्रूव करने के लिए स्पेशली पंजाब में मुस्लिम लीग को अपनी बेस स्ट्रांग करनी थी। इसीलिए 1946 के इलेक्शन के दौरान पीरों और गद्दी नशीनों के साथ राब्ता किया गया। क्योंकि यह लोग एक बहुत बड़ा वोट बैंक कंट्रोल करते थे। यह लोग मुस्लिम लीग का साथ देने के लिए मान गए। मुस्लिम लीग ने भी इन पीरों को अपनी स्पीचेस में, पॉलिटिक्स में, सेमिनार्स में, रैलीज में इनवॉल्व करना शुरू कर दिया। पीर भी इस अलायंस में अपना भरपूर फायदा समझते थे। क्योंकि वो जानते थे कि इस पॉलिटिकल पावर के जरिए वो अपनी सोशल पावर को मजीद स्ट्रांग कर
पाएंगे। उन्हें पॉलिटिकल प्रोटेक्शन मिलेगी, जमीनें मिलेंगी। और याद रखें दोस्तों पाकिस्तान जैसे मुल्कों में जिस शख्स के पास जमीन होती है ना असल इन्फ्लुएंस उसी का होता है। इन पीरों की सपोर्ट की वजह से मुस्लिम लीग ने बहुत सी सीटें जीती। पंजाब में इलेक्शन की इस जीत ने पाकिस्तान की जो डिमांड थी ना उसको मजीद लेजिटिमाइज कर दिया। दूसरी तरफ इन पीरों ने इस कामयाबी को अपने इन्फ्लुएंस को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया। पॉलिटिशियंस के बीच इन पीर और उनकी फैमिलीज को अब सिर्फ एक रिलीजियस लीडर के तौर पर नहीं देखा जाता था। बल्कि अब वो एक
पॉलिटिकल स्टेक होल्डर बन गए थे। लैंड, लोकल एडमिनिस्ट्रेशन, जुडिशरी और इलेक्शंस के मामलात में कंप्लीटली इनवॉल्व होने लगे। और इस सब का सबसे नेगेटिव इंपैक्ट यह हुआ कि वोट पॉलिटिक्स की बजाय कम्युनल हो गया। रिलीजियस सेंटीमेंट को एक्सप्लइट किया जाने लगा। और जो एक उम्मीद थी ना कि पाकिस्तान एक मॉडर्न सेकुलर स्टेट बनेगा। वो उम्मीद अपनी मौत आप मर गई। 1947 में जब पाकिस्तान बना तो ऐसा महसूस हुआ कि पीरों ने पाकिस्तान को अपनी जायदाद ही समझ लिया हो। पंजाब और सिंध की गवर्नेंस स्ट्रांग थी और पीरों का होल भी पंजाब और सिंध पर
ही था। उस वक्त उनकी सबसे बड़ी स्ट्रेटजी यह थी कि एक बड़े पैमाने पर जमीनों पर कब्जा किया जाए और उन्होंने ऐसा ही किया। 1954 तक पाकिस्तान में मुस्लिम लीग की हुकूमत रही। इसीलिए पीर भी पावर में रहे। इसके बाद जैसे ही पॉलिटिकल शिफ्ट आया और मुस्लिम लीग में से मजीद पॉलिटिकल पार्टीज बनने लगी, तो पीरों को भी यह रियलाइज हो गया कि अब मुल्क में पॉलिटिकल इंस्टेबिलिटी है। इसीलिए किसी एक पार्टी पर रिलाई करना बेवकूफी होगी। लिहाजा उन्होंने अपनी स्ट्रेटजी चेंज की। एक भाई ने एक पार्टी जॉइन की और दूसरे ने दूसरी। एक कजन एक ग्रुप का हिस्सा बन गया और
दूसरा दूसरे का। ताकि किसी भी किस्म की स्टेबिलिटी आए इवेंचुअली दे आर द अल्टीमेट विनर्स। लेकिन दोस्तों आपको पता है ना कि वैसे पाकिस्तान में चाहे कुछ ना बदले लेकिन पॉलिटिकली हालात बहुत जल्दी बदलते हैं। 1958 में जब जनरल अयूब खान ने मार्शल लॉ लगाया तो सियासत का पूरा मंजर बदल गया। जो पावर पहले गवर्नमेंट के पास थी वो अब फौज के पास शिफ्ट हो रही थी। कुछ अरसे के लिए पीरों को यह लगने लगा कि उनकी पावर का अब इख्तताम हो जाएगा। लेकिन दोस्तों, इतने सालों से इस्टैब्लिश किया गया बिजनेस ऐसे थोड़ी खत्म होने देंगे। अय्यूब खान समझता
था कि पाकिस्तान को चलाने के लिए उसे वोट और मैसेज की लेजिटिमेसी की जरूरत है। फौज के पास एक जबरदस्त हैंडबुक थी। वो जानते थे कि अगर पाकिस्तान की आवाम को अपने साथ मिलाना है ना तो इन पीरों का सहारा लेना होगा। वो जानते थे कि गांव-गांव में अनपढ़ मुरीदैन वही करेंगे जो उनके पीर साहब कहेंगे। और मैंने आपको वीडियो के स्टार्ट में बताया था ना कि जितना भी बड़ा इंसान होगा वो किसी ना किसी पीर को जरूर फॉलो करता होगा। सोने पे सुहागा यह हुआ कि जनरल अयूब खान पीर दीवल शरीफ के मुरीद निकले। बस फिर क्या था? यहां पर मिलिट्री का एक नया अलायंस बनना शुरू हुआ। पीरों ने अपने
बच्चों की शादियां मिलिट्री फैमिलीज़ में करवाना शुरू कर दी और अपने रिलेशनशिप स्ट्रांग करते गए। बदले में उन्हें सिक्योरिटी भी मिलती थी और जमीनें भी। उन्हें और क्या चाहिए था। यह पीर ना सिर्फ मिलिट्री अलायंस का हिस्सा बन गए बल्कि पॉलिटिशियंस और मिलिट्री के दरमियान एक ब्रिज का भी रोल प्ले करने लगे। इस गठजोड़, इस अलायंस इस पूरे सिस्टम का नतीजा यह निकला कि ये जो पीर थे ना यह सिर्फ मजारात पर काबिज नहीं रहे बल्कि इनका इन्फ्लुएंस अब सियासत और फौज में भी आने लगा। यहीं से वो फ्यूडल मिलिट्री और रिलीजियस नेक्सेस बना जो आज तक पाकिस्तान
को कंट्रोल किए हुए हैं। इसके बाद हर आने वाले दौर में इन लोगों का इन्फ्लुएंस बढ़ता ही गया। तो चाहे वो नवाज शरीफ की हुकूमत हो, इमरान खान की हो, बेनजीर भुट्टो की हो, जरदारी की हो, दे विल ऑलवेज बी इन पावर। केके अजीज अपनी इस किताब में लिखते हैं कि पाकिस्तान की पॉलिटिक्स में पीरों ने जो सबसे बड़ा वेपन यूज़ किया था ना, वो था सूफी मास्क। मतलब यह कि इनका असल मकसद पावर में आना था। जमींदारी और पॉलिटिक्स का फायदा उठाना था। लेकिन पोट्रे ऐसे किया गया कि यह सब कुछ दीन के लिए किया जा रहा है। सूफी ट्रेडिशन साउथ एशिया में पहले से बहुत स्ट्रांग थे।
मुरीदैन अपने पीर को अल्लाह का बंदा समझकर उसकी हर बात मानते थे। पीर की दुआओं को बरकत समझते, उनकी कब्रों को मजार बनाकर सजदा करते और ना सिर्फ पीर बल्कि उसकी सारी फैमिली को भी सीक्रेट समझते। दोस्तों, यह सिर्फ एक स्पिरिचुअल रिलेशनशिप नहीं बल्कि ये एक साइकोलॉजिकल ग्रिप है पाकिस्तान के लोगों पे। जहां उनको लगता है कि वो पीर ना सिर्फ दीन बल्कि दुनिया में भी उनको बचाएगा। पीरों ने इसी सोच का भरपूर फायदा उठाया और अपने आप को सूफी मार्क्स से कवर किया। मतलब आवाम को यह दिखाया कि वो सिर्फ अल्लाह के बंदे हैं। उनके मसाइल सुनते हैं। उनके लिए
दुआएं करते हैं। जबकि दरअसल वो एक फ्यूडल लॉर्ड थे। केके अजीज लिखते हैं कि पीर असल में एक पॉलिटिकल ब्रोकर था जो रिलजन का लिबास पहनकर हमारे दरमियान रहा। और जब कोई पॉलिटिक्स के अंदर रिलजन का मास्क पहन ले ना तो उसको पहचानना आसान नहीं होता और ना ही उसके खिलाफ बगावत आसान होती है। लेकिन दोस्तों कभी आपने सोचा है कि ये जो पीरी मुरीदी का सिस्टम है ये किस तरह से हमारे मुआशरे में इतना तगड़ा हो गया, इतना स्ट्रांग हो गया कि इसके खिलाफ आज तक कोई भी स्ट्रांग मूवमेंट खड़ी नहीं हो सकी। इसकी कुछ बहुत ही सॉलिड रीज़न्स हैं जो हम
वन बाय वन डिस्कस करेंगे। इसमें सबसे पहली वजह है तकलीफ। इस लफ्ज़ का सिंपली मतलब है फॉलो करना। किसी को मानना पाकिस्तान के कल्चर में ना अंधी तकलीद है। यहां पर आप सिर्फ मजहब का नाम ले लें। उसके बाद कोई रैशनलिटी, कोई सोच, कोई इंटेलिजेंस वैल्यू नहीं रखती। लोग कुरान शरीफ अरबी में पढ़ते तो हैं लेकिन उसका मतलब समझने की कोशिश नहीं करते। बस जहां कहीं से बात सुनते हैं उसको एज इट इज फॉलो करना शुरू कर देते हैं। इसीलिए इन लोगों की कभी जुर्रत नहीं होती। इनफैक्ट जुर्रत क्या है? इन लोगों के पास इंटेलेक्ट ही नहीं होता कि अपने
पीर से सवाल कर सके। द पीर एंजॉयस अनडिस्प्यूटेड पावर। अंधी तकलीद का यह कल्चर मुरीद को डिपेंडेंट और पीर को पावरफुल बनाता है। दूसरी रीजन है करप्टेड सूफिज्म। सूफिज्म असल में एक स्पिरिचुअल प्रैक्टिस थी जिसका मकसद था अपने अंदर से खुदग्रजी, हवस और मटेरियल ग्रीड को खत्म करना और सिर्फ अल्लाह का मैसेज लोगों तक पहुंचाना। लेकिन पाकिस्तान और इंडिया में ये सूफिज्म की प्रैक्टिस आहिस्ता-आहिस्ता करप्ट हो गई। इन सूफियों और पीरों ने मजहब को दरअसल अपनी सोर्स ऑफ इनकम बना लिया। तीसरी और मेरे लिहाज से जो सबसे खतरनाक और लीथल रीजन है वह है इंस्टीट्यूशन ऑफ खानका
यानी कि खानकाह का कयाम। पुराने जमाने में खानका ऐसे इंस्टीटश थे जहां रिलीजियस टॉपिक्स पर डिस्कशन होती थी। सूफी और आम लोग बैठ के इंपॉर्टेंट टॉपिक्स डिस्कस किया करते थे। आम लोगों को नॉलेज देते थे। लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता ये खानकाहें एक ऐसे इंस्टीट्यूशन में बदल गई जहां पर लोग आते थे पीरों के पैर दबाने, उनको पैसे देने, उनसे दुआएं करवाने। इसका इंपैक्ट यह हुआ कि रिलीजियस टीचिंग्स की जो क्वालिटी थी ना वो आहिस्ता-आहिस्ता गिरना शुरू हो गई और मुरीदैन की तादाद बढ़ती चली गई। जिनका काम था पीर को फ्लटर करना। इसकी एक और रीजन है कब्रों के ऊपर मजारात का कयाम।
मन्नतें, चादरें, फूल और नजरो नियाज का सिलसिला यहीं से स्टार्ट हुआ। लोग अल्टीमेट रियलिटी के साथ अपना डायरेक्ट कनेक्शन बनाने की बजाय इन मजारात के जरिए अपनी ख्वाहिशात की पूरे होने की उम्मीद रखने लगे। यह मजारात ही फिर पॉलिटिकल और फाइनेंसियल इन्वेस्टमेंट्स बन गई। पाकिस्तान में हर मजार के साथ ना एक फैमिली होती है जो केयरटेकर होती है और यह फैमिली अपने आने वाली नस्लों के लिए उस दरबार के रेवेन्यू और इन्फ्लुएंस का सोर्स बनती है। इन मजारात पर हर साल उर्स होते हैं। उर्स उस इवेंट को कहते हैं जो एज अ डेथ सेरेमनी सेलिब्रेट होता है। यानी जब
उस पीर की बरसी आई थी तो एक इवेंट ऑर्गेनाइज किया जाता है जिसे अटेंड करने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। मन्नतें मांगते हैं, डोनेशंस देते हैं और देखते ही देखते एक पीर सोशल और पावरफुल पॉलिटिकल फिगर बन जाता है। तो, चाहे वो जिंदा हो, या फिर मुर्दा। इस पीर मुरीदी के सिस्टम ने जो सबसे बड़ा डेंट मारा है ना, वह पाकिस्तान के लोगों की साइकोलॉजी पर है। लोग डिपेंडेंट सिंड्रोम का शिकार हो गए हैं। अपने जोरे बाजू पर बिलीफ रखने की बजाय अपने हाथों में अपनी डेस्टिनी को रखने की बजाय वो हाथों की लकीरों पर ईमान रखते हैं। घर का मसला हो, पीर हल करेगा,
सेहत का मसला हो, पीर हल करेगा, मोहब्बत का मसला हो, पीर हल करेगा। मोजों के जरिए कोई काम करवाना हो वो काम भी पीर करेगा। यह बेचारे गरीब लोग एक पीर से अपनी उम्मीदें लगा लेते हैं जो उनके पैसे भी खाता है और उनके मसाइल का कोई हल भी नहीं करता। और इसमें आपको मजे की बात बताऊं इन पीरों की इन लोगों के ज़हनों पर साइकोलॉजिकल ग्रिप इतनी स्ट्रांग होती है कि ये जानते हैं कि इस पीर की हकीकत क्या है? ये जानते हैं कि उनके मसाइल हल नहीं हो रहे। लेकिन इसके बावजूद यह मुरीदैन उसके लिए अपनी जान भी दे सकते हैं। देखिए दोस्तों इस्लाम के अगर आप ट्रू एसेंस को
समझे ना तो यह जो मुल्लायत का इंस्टीट्यूशन है, ये जो पीरी मुरीदी का इंस्टीट्यूशन है, यह एक्सिस्ट ही नहीं करता इस्लाम में। इट इज़ ऑल अ सोशल कंस्ट्रक्ट। यह मुसलमानों की लाइल्मी है कि आज तक वो अपने दीन को ही नहीं समझ सके। जिसकी तालीमात वाकई में एनलाइटनिंग है। हुजूर पाक सल्लल्लाह अल वसल्लम की शख्सियत इतनी कमाल है कि उनकी जिंदगी का ही अगर हम थरो एनालिसिस कर लें तो हम अपनी जिंदगी को ट्रांसफॉर्म कर सकते हैं। लेकिन दोस्तों ऐसा करने के लिए हमें सोचना पड़ेगा वी नीड टू थिंक रीटूल रिवायर रीडजस्ट एंड डू अ नेशनल इंटेलेक्चुअल ऑडिट। वरना यह पीर
इन्हीं दरबारों के जरिए आवाम को बेवकूफ बनाते रहेंगे। आखिर में इकबाल साहब का एक ऐसा शेर जो इस सिचुएशन पर बिल्कुल फिट बैठता है। यह मैंने उनकी एक नजम से लिया है जिसका टाइटल है इब्लीस की मजलिस शुरा। इसका कॉन्टेक्स्ट यह है कि शैतान ना अपनेिस्टर्स के साथ, अपनी पार्लियामेंट के साथ, अपनी कैबिनेट के साथ बैठा हुआ है और अपने चेलों से रिपोर्ट ले रहा है कि हां भाई तुम अपना काम सही तरीके से कर रहे हो या नहीं। इनमें से एक चेला उठता है और कहता है कि सब कुछ सही चल रहा है लेकिन एक कौम ऐसी है जो हमें टफ टाइम दे सकती है और वो है मुसलमान। फिर शैतान कहता है कि तुम
फिक्र ना करो। मैं तुम्हें बताता हूं कि इन मुसलमानों को कैसे डील करना है। इनको कैसे बरगलाना है। इसका जो आखिरी शेर है ना वो अर्थ शैटरिंग है। वो कमाल है और मुसलमानों की जो एकिस्टिंग सिचुएशन है ना उसको बिल्कुल सही तरीके से डिफाइन करता है। इब्लीस कहता है कि मस्त रखो जिक्र फिक्र सुबहगाही में इसे। मस्त रखो जिक्र फिक्र सुबहगाही में इसे। पुख्तर कर दो मिजाज खानकाही में इसे। अब इसका मतलब यह है कि इब्लीस अपने चेलों को कह रहा है कि यह जो मुसलमान कौम है ना इसको मस्त रखो। यह जो सुबह सुबह उठकर विद करते हैं, अल्लाहू के नारे लगाते हैं, एक्शन के ऊपर
बिलीव नहीं करते। सिर्फ तावीज गंडों में मस्त रहते हैं। इनको इसी में मस्त रखो ताकि यह दुनिया में कोई भी वर्थ वाइल काम नहीं कर सके। पुख्तर कर दो मिजाज खानकाही में से। और यह जो खानकाही निजाम है जिसमें बाप और फिर उसका बेटा और फिर उसका बेटा जिसमें कोई क्वेश्चनिंग की अलाउंस नहीं है जिसमें इंसान किसी नई नोवेल्टी पे किसी नई चीज के ऊपर काम नहीं करता जिसमें रिस्पेक्ट है तो सिर्फ ब्लड लाइन की इनके अंदर ऐसे ही मिजाज को परवान चढ़ाओ ताकि इसी तरह बेवकूफी से यह अपनी जिंदगी गुजार सकें क्योंकि अगर मुसलमानों ने सवाल करना शुरू कर दिया तो वहीं से उनकी तरक्की का
आगाज होगा और मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। मेरी बातों के बारे में जरूर सोचिएगा।
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