दोस्तों कभी आपने सोचा है कि आज की दुनिया के मॉडर्न निजाम में अमीर अमीर से अमीर तक और गरीब गरीब से गरीब तर क्यों होता जा रहा है? यह बात मैं आपको एक स्टबित करता हूं। दुनिया की जो 99% वेल्थ है ना वो दुनिया के 1% अमीर तरीन लोगों के पास है। 8 अरब लोग हैं इस दुनिया में। लेकिन दौलत कुछ ही लोगों के पास है। ईलॉन मस्क और जेफ बेजोस जैसे लोग हर आने वाले साल के साथ मजीद अमीर से अमीर होते चले जा रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ पूरी दुनिया में गरीब और मजदूर की जिंदगी हर नए दिन के साथ और भी ज्यादा भूख, अफलास, महंगाई और बेबसी का शिकार हो रही है। क्या यह सिर्फ किस्मत का
खेल है या इस दौर का निजाम ही कुछ ऐसा है? क्या यह सिर्फ एक इकोनमिक क्राइसिस है? या इस दुनिया का निजाम डेलीबेटली ऐसा बनाया गया है जो सिर्फ सरमायादार को तहफुज़ फराहम करता है? इस अनजस्ट और गरीबों के खून को चूसने वाले सिस्टम से सबसे पहले पर्दा उठाया था द ग्रेट कार्ल मार्क्स ने। और आज मैं अपने साथी अपने दोस्त कार्ल मार्क्स के जरिए ही इस विशियस सिस्टम को आपको पूरे तरीके से समझाऊंगा। उसकी मैगनामोपस किताब दास कैपिटल के जरिए। कार्ल मार्क्स 19वीं सदी का मशहूर जर्मन सोशियोलॉजिस्ट और फिलॉसफर था। वो उन आइडियाज की वजह से मशहूर हुआ जिनको या तो
उसने तनकीद का निशाना बनाया या फिर उनका उसने दफा किया। उसने कैपिटलिज्म यानी सरमायादारी निजाम की मुखालफत की और गरीबों के हुकूक का नारा लगाया। उसने बहुत सी किताबें लिखी जो मजदूरों के राइट्स की हिमायत करती हैं जो कम्युनिज्म और सोशलिज्म की बात करती हैं। इनमें से सबसे अहम किताब है दास कैपिटल जो उसने लिखी थी इन द ईयर 1868 में। दास कैपिटल दोस्तों एक ऐसी किताब है जिसमें कार्ल मार्क्स ने यह बात समझाई है कि किस तरीके से कैपिटलिज्म यानी कि जो सरमायादारी निजाम है वो किस तरीके से गरीब आवाम का मजदूर का खून चूसता है और किस तरह कैपिटलिज्म के मुकाबले में
सोशलिज्म एक बेहतरीन सिस्टम है। ये तीन वॉल्यूम्स पर मुश्तमिल एक सीरीज है जिसको असल में जर्मन जबान में लिखा गया और बाद में दास कैपिटल की मुख्तलिफ जबानों में ट्रांसलेशन हुई। दोस्तों, यह कोई मामूली किताब नहीं है। यह तारीख की कुछ बहुत ही इंपॉर्टेंट किताबों में से एक है। लिहाजा हमारी आज की इस गुफ्तगू में मैं इस किताब को आपको समझाने की कोशिश करूंगा। शायद हमारी कुछ जगहों पर डिस्कशन थोड़ी सी टेक्निकल हो जाए। लेकिन हमेशा की तरह इन कॉम्प्लेक्स आइडियाज को मैं आपके लिए सिंपलीफाई कर दूंगा। इस किताब के वॉल्यूम वन में कैपिटल प्रोडक्शन का मुकम्मल
प्रोसेस बताया गया है। मार्क्स के मुताबिक कैपिटलिज्म की दुनिया का सबसे बेसिक यूनिट कमोडिटी होती है। कमोडिटी दोस्तों वो चीज है जो बाजार में बिकने के लिए बनाई जाए। सिंपल अल्फाज में अगर आप एक रोटी घर में बनाते हैं अपनी भूख को मिटाने के लिए तो वो एक कमोडिटी नहीं है। लेकिन अगर आप उसी रोटी को लोगों को बेचने के लिए बनाते हैं तो फिर वो एक कमोडिटी बन जाती है। इसका मतलब यह है कि कैपिटलिस्टिक निजाम में चीजें बनाई जाती है सिर्फ इस्तेमाल के लिए नहीं बल्कि उससे मुनाफा कमाने के लिए। मार्क्स ने कमोडिटी की दो टाइप समझाई। एक है यूज़ वैल्यू। यानी कि उसके फायदे या
जरूरत की कीमत। किसी भी चीज का इस्तेमाल कैसे होता है? जैसे कि पंखा हवा देता है, रोटी भूख मिटाती है। और दूसरी है एक्सचेंज वैल्यू। एक्सचेंज वैल्यू का ताल्लुक मार्केट से है। यह वो कीमत होती है जो दूसरी चीजों के बदले में उस चीज को मिल सकती है। यानी कि किसी भी चीज के बदले दी गई कीमत। सिंपल वर्ड्स में अगर मैं आपको समझाऊं तो यूज़ वैल्यू से मतलब है कि इस चीज से क्या काम निकलेगा। और एक्सचेंज वैल्यू से मतलब है कि यह चीज बाजार में कितने की बिकेगी। कैपिटलिज्म में लोग सिर्फ यह चीज देखते हैं कि इस चीज की एक्सचेंज वैल्यू क्या है? वो यह भूल जाते
हैं कि इस चीज को बनाने में मजदूर की कितनी मेहनत लगी है। यानी कि इंसान की मेहनत को चीजों के पीछे छुपा दिया गया है। मार्क्स ने इसको कमोडिटी फिटिश्म का नाम दिया। यह कमाल का और जबरदस्त कांसेप्ट है जिसको आपके लिए समझना जरूरी है। कार्ल मार्क्स का कहना था कि कैपिटलिज्म में चीजों यानी कमोडिटीज को इस तरह देखा जाता है जैसे उनमें कोई अपनी नेचुरल कीमत हो। लेकिन दरअसल वो कीमत चीज की नहीं वो कीमत होती है उसके पीछे मजदूर की मजदूरी की। लेट्स सपोज कि एक बहुत ही महंगी रिस्ट वॉच है। RX की वॉच है। लोग उसको देख के कहते हैं कि यार यह $5000 की है। यह बहुत महंगी
है। लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि इस घड़ी के हर पार्ट को बनाने में किस-किस ने कितनी देर तक काम किया। कितना पसीना बहाया। कितनी स्किल लगाई। जब हम इस रिस्ट वॉच को एक महंगे से शोरूम में देखते हैं तो हम इसकी प्राइस देखते हैं। इसकी ब्रांड वैल्यू देखते हैं। इसके ऊपर की शाइन देखते हैं। जबकि इसके पीछे की मेहनत किसी को नजर ही नहीं आती। मार्क्स ने यहीं पर कुछ तारीखी लाइंस कही। उसने कहा कि लोग सामान को तो वैल्यू दे देते हैं लेकिन उस वैल्यू को पैदा करने वाले इंसानों को भूल जाते हैं। ये जो इल्लुजन है ना ये कैपिटलिज्म का कोर प्रॉब्लम है। ये एक बुनियादी मसला
है सरमायादारी निजाम का। लेकिन ये जो लफज़ है फिटिश्म। इसका आखिर क्या मतलब है? नॉर्मली फिटिश का मतलब होता है किसी ऑब्जेक्ट को एक्स्ट्रा पावर देना। जैसे कोई तावीज या आइडल जिसे लोग सुपर नेचुरल समझ लेते हैं। कैपिटलिज्म में भी यही होता है। इनफैक्ट ये कैपिटलिज्म का फ्लॉ है जिसमें किसी भी प्रोडक्ट या चीज की सुपरफिशियल वैल्यू को देखा जाता है। उससे समझा जाता है कि दरअसल यह चीज कीमती है। जबकि उसके पीछे की मेहनत और लेबर का जिक्र ही नहीं किया जाता। मिसाल के तौर पर iPhone $2000 का बिकता है। लोग कहते हैं कि भाई यह Apple ब्रांड है। इसी वजह से
महंगा है। लोग iPhone तो देखते हैं, खरीदते हैं, उसकी तारीफ भी करते हैं। लेकिन कोई यह नहीं देखता कि चाइना की Voxon फैक्ट्री में 18 से 20 साल के लड़के लड़कियों ने 12-12 घंटे काम करके इस फोन को असेंबल किया है। एक iPhone तो $2000 में बिक जाता है। लेकिन इन लड़के लड़कियों की कुल महाना उजरत महाना सैलरी शायद $3400 से ज्यादा ना हो। देख रहे हैं आप कितना बड़ा फर्क है एक लेबर की सैलरी में और उस चीज की एक्सचेंज वैल्यू में। कार्ल मार्क्स को इसी बात पर सबसे ज्यादा एतराज था। वो कहता था कि सरमायादारी निजाम में किसी एक चेहरे को जिसको सबसे ज्यादा
छुपाया गया है ना वो है मजदूर का चेहरा और दरअसल यह मजदूर ही है जो दुनिया के निजाम को चलाता है। फिर मार्क्स आता है अपनी कोर थ्योरी पर जिसे कहते हैं लेबर थ्योरी ऑफ़ वैल्यू। इस थ्योरी के मुताबिक किसी भी कमोडिटी की असल वैल्यू इस बात से तय होती है कि उसको बनाने में कितना सोशली नेसेसरी लेबर टाइम लगा। लेट्स सपोज आपके सामने दो टेबलें हैं। एक टेबल को बनाने में एक मजदूर को 4 घंटे लगे और दूसरी को बनाने में एक मजदूर को 8 घंटे। मार्क्स के मुताबिक जिस टेबल को बनाने में 8 घंटे लगे ना, उसकी वैल्यू ज्यादा होनी चाहिए। उसकी वजह यह है कि इस 8 घंटे के बाद बनने वाली
टेबल पर एक मजदूर ने ज्यादा मेहनत की है। उसकी ज्यादा लेबर इन्वेस्ट हुई है। इसकी मैथमेटिकल इक्वेशन कुछ यूं है। मीन वैल्यू ऑफ द प्रोडक्ट इज इक्वल टू सोशली नेसेसरी लेबर टाइम। यानी कि चीज की कीमत वही होगी जितना उसके ऊपर मजदूरी लगेगी। यहां पर लेबर के कांसेप्ट को समझाने के लिए कार्ल मार्क्स दो तरह की लेबर का जिक्र करता है। जिसमें पहले है कंक्रीट लेबर। यह वो स्पेसिफिक काम है जो कोई भी शख्स करता है। यानी कि कारपेंटर, टीचर या फिर फैक्ट्री वर्कर। दूसरी है एब्स्ट्रैक्ट लेबर। यह वो जनरल या आम लेबर होती है जो सिर्फ वक्त के
हिसाब से नापी जाती है। चाहे काम कुछ भी हो। इसमें देखा नहीं जाता कि आप क्या काम कर रहे हो। सिर्फ यह देखा जाता है कि आपने कितने घंटे काम किया। चाहे काम फैक्ट्री में हो, किचन में हो या फिर आप एक फ्रीलांसर हो। यह देखा जाता है कि आपने उस काम करने के लिए कितने घंटे सर्व किए। अगर उस काम करने में मेहनत लगी है तो उसकी एक इकोनॉमिक वैल्यू है। यानी हर काम के अंदर एक एब्स्ट्रैक्ट लेवल मौजूद होता है। जिसमें यह देखा जाता है कि उस काम को करने के लिए कितनी मेहनत लगी, कितना टाइम लगा, कितनी एनर्जी लगी। मार्क्स यह भी कहता था कि हर चीज की वैल्यू उस वक्त से तय होती
है जो सोशली नेसेसरी लेबर टाइम हो। यानी एवरेज वक्त जो एक स्किल्ड वर्कर नॉर्मल हालात में किसी चीज को बनाने में लगाए। अगर मशीनंस आज काम आधा कर दें तो उस चीज की कीमत भी आधी हो जाती है क्योंकि मेहनत कम लगी। दोस्तों ये जो मार्क्स का लेबर थ्योरी ऑफ़ वैल्यू का कांसेप्ट है ना इसी के जरिए उसने कैपिटलिस्टिक सिस्टम का नकाब उतारा था। वो लिखता है कि मार्केट में जो कीमत हम लोग देखते हैं ना वो असल में एक चीट कोट की तरह है। उस चीज के पीछे इंसान की बहुत मेहनत है, मजदूरी है, थकन है, वक्त है। लेकिन सबसे बड़ा जुल्म यह होता है। कि उस मजदूर को उसकी मजदूरी का मोल
नहीं मिलता। और अब आता है मार्क्स का सबसे एक्सप्लोसिव आईडिया यानी कि सरप्लस वैल्यू। मार्क्स कहता है कि द वैल्यू ऑफ़ लेबर पावर एंड द वैल्यू व्हिच दैट लेबर पावर क्रिएट्स इन द लेबर प्रोसेस आर टू डिफरेंट मैग्नीट्यूड्स। वो कहना यह चाहता है कि मजदूर जितनी वैल्यू क्रिएट करता है ना उसे सिर्फ उसका एक ही हिस्सा मिलता है। मार्क्स के नजदीक ये जो सरप्लस वैल्यू का आईडिया है ना यह वो हथियार है जिसके जरिए कैपिटलिस्ट पूरी मार्केट को एक्सप्लइट करता है। मजदूर का इस्तेहसाल करता है और इसी सरप्लस आईडिया के जरिए अमीर से अमीर तर होता जाता है। ये बात मैं आपको एक
मिसाल से समझाता हूं। समझे एक शर्ट को बनाने में एक मजदूर का एक घंटा लगता है। उसे इस एक घंटे के ₹200 मिलते हैं। मगर वह शर्ट मार्केट में 2000 की बिकती है। तो यह जो ₹1800 है ना इसको सरप्लस वैल्यू कहते हैं। अब आप सोचें कि दुनिया भर की लाखों करोड़ों फैक्ट्रीज में लाखों करोड़ों अरबों प्रोडक्ट्स इसी फार्मूले के तहत बनती हैं। जिसकी वजह से वेल्थ 1% लोगों में कंसंट्रेटेड है। पूरी उम्र कैपिटलिस्ट मजदूरों का खून चूसता है। उसे दिहाड़ी कम से कम देता है और उस दिहाड़ी के जरिए जो उसको फायदा होता है उसे मल्टीप्लाई करता जाता है। यह कैपिटलिज्म का कोर आईडिया है।
मार्क्स ने एक बहुत बड़ी बात कही जो आज के सिस्टम के बिल्कुल खिलाफ है। उसने कहा कि प्रॉफिट इज थफ्ट यानी कि मुनाफा कमाना चोरी के बराबर है। मार्क्स ने सरप्लस वैल्यू के जरिए एक और ब्रेथ टेकिंग आईडिया दिया जिसने इस पूरे कैपिटलिस्टिक सिस्टम को नंगा कर दिया। उसका कहना था कि जब एक कैपिटलिस्ट सरप्लस वैल्यू कमाता है ना और अगर उस पैसे को दोबारा इन्वेस्ट करता है नए बिजनेस में, मशीनरी में और ज्यादा प्रोडक्शन के लिए इसे कहते हैं कैपिटल एक्यूमुलेशन यानी कि पैसे को जमा करना यानी कि पैसे के जरिए मजीद पैसे कमाना। वो कैपिटलिस्ट तो पैसे कमा जाता है लेकिन
लेबर को इस कैपिटल एक्यूमुलेशन का कोई फायदा नहीं होता। इस कैपिटल एक्यूमुलेशन के आईडिया को समझाने के लिए फिर से आपको इस शर्ट की एग्जांपल देता हूं। समझे एक फैक्ट्री का मालिक एक शर्ट बनाने के लिए वर्कर को ₹500 देता है। लेकिन वो उसी शर्ट को मार्केट में ₹1500 में बेचता है। इस सब में पैकेजिंग, डिलीवरी, लॉजिस्टिक्स यह सब खर्चे हटा के समझे उस सेठ को बचते हैं ₹700 एक शर्ट पे। यह उस शर्ट की सरप्लस वैल्यू है। अब वो कैपिटलिस्ट से ₹700 को और मशीनंस लेने में लगाता है या फिर ज्यादा वर्कर्स हायर करता है या फिर प्रोडक्शन को एक्सपेंड करता है ताकि अगली
दफा वो इससे और भी ज्यादा प्रॉफिट यानी कि मुनाफा कमा सके। हर आने वाले वक्त के साथ वह प्रॉफिट को बार-बार इन्वेस्ट करता है। अपनी प्रोडक्शन कैपेसिटी को बढ़ाता जाता है। लोगों की मजदूरी तो नहीं बढ़ाता लेकिन अपने प्रॉफिट को कई गुना मल्टीप्लाई कर देता है। जिससे मुआशरे में डिसबैलेंस बढ़ता है। मार्क्स का कहना था कि कैपिटल इज वैल्यू इन मोशन। यानी कि जब तक पैसा चल रहा है तब तक उसकी वैल्यू है। यानी पैसा तब तक कैपिटल है जब तक वह चल रहा है, इन्वेस्ट हो रहा है, बढ़ रहा है और ज्यादा से ज्यादा अपने सेठ को कमा के दे रहा है। कार्ल मार्क्स भी ना ग्रेट आदमी था। क्या
जबरदस्त आईडिया समझा के गया है। यहां पर उसने मनी और कैपिटल का भी डिफरेंस समझाया। उसने कहा कि मनी वो पैसा है जो तुम आज यूज करते हो। यानी कि खाना खाने के लिए, किराया देने के लिए या शॉपिंग करने के लिए। जबकि कैपिटल वह पैसा है जो आप इन्वेस्ट करते हो बिजनेस में, मशीनंस में, स्टक्स में ताकि फ्यूचर में आपको और ज्यादा से ज्यादा पैसा मिल सके। एक नॉर्मल दिहाड़ीदार मजदूर पूरी जिंदगी अपने पैसे के जरिए अपनी जरूरतों को पूरा करने में गुजार देता है। जबकि कैपिटलिस्ट अपने कैपिटल को बार-बार इन्वेस्ट करता है और उस इन्वेस्टमेंट के जरिए बेतहाशा प्रॉफिट
बनाता है। एक्यूमुलेशन ऑफ कैपिटल इज देयर फॉर इंक्रीस ऑफ द प्रोटेरियट। मार्क्स का कहना था कि जब यह कैपिटल एक्यूमुलेशन बढ़ता है ना तो सिर्फ कुछ लोगों के पास सारा पैसा, फैक्ट्रीज और एसेट्स जमा हो जाते हैं। और बाकी लोग जो कुछ ओन नहीं करते वो सिर्फ अपनी स्किल बेचकर या मजदूरी करके गुजारा करते हैं। इन्हें मार्क्स कहता है प्रोलिटेरिएट यानी कि वर्किंग क्लास। इसका मतलब है कि मुआशरे में जितना ज्यादा कैपिटल बढ़ता है उतनी ही ज्यादा इनकलिटी बढ़ती है। बिल आखिर यह कैपिटल एक जगह पर कंसंट्रेट होना शुरू हो जाता है जिसकी वजह से इंडस्ट्रीज सेंट्रलाइज होती
है और मोनोपोलीस क्रिएट होती है। दास कैपिटल के वॉल्यूम टू में भी कार्ल मार्क्स इस कैपिटल के सर्कुलेशन को मजीद एक्सप्लेन करता है। उसके मुताबिक कैपिटल सिर्फ एक जगह स्टैटिक नहीं रहता बल्कि वो घूमता है। एक साइकिल में चलता है जिसमें तीन मेजर स्टेजेस होती हैं। पहला है मनी यानी कि पैसा। दूसरा है प्रोडक्शन यानी कि पैदावार और तीसरा है कमोडिटीज यानी कि सामान या फिर माल। मनी पहली स्टेज है और इस स्टेज में कैपिटलिस्ट अपना पैसा इन्वेस्ट करता है। रॉ मटेरियल खरीदता है जैसे कि कपड़ा, लोहा, प्लास्टिक वगैरह। लेबर हायर करता है और टूल्स, मशीनंस भी
खरीदता है। उसके बाद आती है सेकंड स्टेज जो कि है प्रोडक्शन सर्किट। इस स्टेज में जो मटेरियल और लेबर पहले खरीदी गई थी उनसे माल तैयार होता है। और फिर आती है तीसरी स्टेज यानी कि कमोडिटी सर्किट। अब जो माल तैयार हुआ था उसे मार्केट में बेच दिया जाता है और उस माल को तैयार करने में जो पैसे लगे थे उससे कई गुना ज्यादा पैसा कमाया जाता है और यह सर्कल सारी उम्र घूमता रहता है। इस सर्कुलेशन को मजीद समझाने के लिए वॉल्यूम टू में कार्ल मार्क्स रिप्रोडक्शन के कांसेप्ट को भी एक्सप्लेन करता है। एक है सिंपल रिप्रोडक्शन और दूसरी है एक्सपेंडेड
रिप्रोडक्शन। मार्क्स के नजदीक रिप्रोडक्शन का मतलब सिर्फ माल बनाने का प्रोसेस नहीं बल्कि उस कैपिटलिस्ट सिस्टम का खुद को दोबारा चलाना और बढ़ना भी है। यह प्रोसेस कैपिटलिस्टिक सिस्टम में बहुत जरूरी है। क्योंकि इसी प्रोसेस के जरिए एक सरमायादार अपना सरमाया एक्यूमुलेट करता है। सिंपल रिप्रोडक्शन में कैपिटलिस्ट वो पैसा, माल और रिसोर्सेज दोबारा यूज़ करता है जो पहले से सिस्टम में है। इसमें कोई इजाफा नहीं होता। सिर्फ उतनी ही प्रोडक्शन होती है जितनी पहले थी। मजदूरी दी जाती है, रॉ मटेरियल खरीदा जाता है, माल बनाया जाता है और उसे बेच दिया जाता है। लेकिन
सिस्टम का साइज नहीं बढ़ता। लिहाजा सिंपल रिप्रोडक्शन के जरिए सरमाया उतना ही रहता है जितना था। इसके बरक्स एक्सपेंडेड रिप्रोडक्शन में एक सरमायादार अपने प्रॉफिट को रीइ्वेस्ट करता है ताकि मजीद माल बनाया जा सके। नए मजदूर रखता है। ज्यादा रॉ मटेरियल खरीदता है और प्रोडक्शन को बढ़ाता है। यह एक्सपेंशन ही दरअसल इस कैपिटलिस्टिक सिस्टम की रूह है। इसकी नीव है। इसकी फाउंडेशन है। जहां प्रॉफिट का हर दफा दोबारा लगाया जाना इस बात का सबूत है कि यह सिस्टम सिर्फ सर्वाइव नहीं करना चाहता बल्कि यह सिस्टम एक्सपेंड करना चाहता है। और यह सिस्टम एक्सपेंड करेगा
सिर्फ कैपिटलिस्ट के लिए, सेठ के लिए, उस प्रोजेक्ट के ओनर के लिए। दास कैपिटल का वॉल्यूम थ्री कार्ल मार्क्स का सबसे गहरा और मुकम्मल तजिया है। जिसमें वो यह बताता है कि कैपिटलिस्टिक सिस्टम सिर्फ माल बनाने का नहीं बल्कि एक कंप्लीट निजाम है जिसमें डिफरेंट कैपिटल्स आपस में इंटरेक्ट करते हैं। जो सरप्लस वैल्यू वर्कर्स के लेबर से हासिल होती है वो बाद में प्रॉफिट में तब्दील होती है। लेकिन यह ट्रांसफॉर्मेशन एक सीधा प्रोसेस नहीं होता। यह इनवॉल्व करता है सरप्लस वैल्यू का तकसीम होना। मुख्तलिफ कैपिटलिस्ट और इंडस्ट्रीज के दरमियान। हर सेक्टर का एक
अलग प्रॉफिट रेट होता है और कैपिटल वहां मूव करता है जहां प्रॉफिट ज्यादा से ज्यादा हो और इसके साथ-साथ मार्क्स यह भी प्रेडिक्ट करता है कि वक्त के साथ-साथ प्रॉफिट का रेट गिरता है लेकिन आखिर क्यों? मार्क्स का कहना था कि जैसे-जैसे सिस्टम एफिशिएंट होता है वो अपनी ही एफिशिएंसी का शिकार हो जाता है। वक्त के साथ-साथ उसकी प्रॉफिटेबिलिटी कम होने लगती है और इस गिरते हुए प्रॉफिट का नतीजा होता है इकोनॉमिक क्राइसिस। जहां प्रोडक्शन तो बहुत होती है लेकिन लोगों के पास खरीदने के पैसे नहीं होते। इसे मार्क्स कहता है ओवर प्रोडक्शन क्राइसिस। माल इतना ज्यादा
बन जाता है कि मार्केट उसे अब्सॉर्ब नहीं कर पाती। ऐसे में कैपिटलिस्ट सिस्टम अपने ही अंदर कोलैप्स का रिस्क ले आता है। द रियल बैरियर ऑफ कैपिटलिस्टिक प्रोडक्शन इज कैपिटल इटसेल्फ। यानी कि सिस्टम के अंदर असल रुकावट उसी के अंदर छुपी हुई ग्रीड। उसी के अंदर छुपी हुई लालच है। ऐसे क्राइसिस सिर्फ इकोनमिक कोलैप्स नहीं लाते बल्कि यह पूरी लेबर क्लास को तबाह बर्बाद कर देते हैं। जॉब्स चली जाती है, वेजेस कम हो जाती है और अनसर्टेनिटी बढ़ती है। लेकिन दोस्तों अजीबोगरीब और अम्यूजिंग बात देखें कि ये इकोनॉमिक क्राइसिस भी इन कैपिटलिस्ट के लिए एक ओपोरर्चुनिटी बन
जाता है। वो अपने कंपटीशन को खत्म करते हैं। उनके एसेट्स सस्ते दामों में खरीद लेते हैं और फिर दोबारा उससे प्रॉफिट बनाने की मशीनरी को स्टार्ट करते हैं। यह तो थी दोस्तों दास कैपिटल की कहानी। कार्ल मार्क्स की बातें बेहतरीन है, बिल्कुल सच है, मोटिवेशनल है और रिवोल्यूशनरी भी हैं। लेकिन अनफॉर्चूनेटली आज का निजाम कैपिटलिज्म का है। आज सरमाया, प्रॉफिट, कैपिटल एक्यूमुलेशन, वेल्थ एक्यूमुलेशन ही दुनिया की सबसे बड़ी हकीकत है। ऐसे में क्या आपको लगता है कि कार्ल मार्क्स का इंकलाबी फलसफा फिर दोबारा से इस दुनिया का निजाम बदल सकता है या नहीं? मुझे अपना
फीडबैक जरूर दीजिएगा। एट द नेक्स्ट टाइम, गुड बाय।