सादत हसन मंटो उर्दू अदब का वो नाम जिन्होंने अपने कलम से वह असर वो इंपैक्ट छोड़ा जो ना उनसे पहले कोई राइटर कर पाया और ना उनके बाद उनकी उम्र सिर्फ 42 साल थी लेकिन इतनी कम उम्र में उन्होंने वो अफसाने लिखे जो पूरी दुनिया में आज भी पढ़े जाते हैं। हमारी पिछली गुफ्तगू में मैंने आपको उनका एक अफसाना सुनाया था जिसका टाइटल था ठंडा गोश्त। आप लोगों को उसकी नरेशन उसकी कहानी बहुत पसंद आई। लिहाजा मैंने सोचा कि आज क्यों ना मंटो के एक और जानलेवा अफसाने के बारे में बात करते हैं। और आज मैंने आपके लिए सेलेक्ट किया है काली शलवार को। काली शलवार भी
मंटो का एक शाकार अफसाना है। इट इज वेरी फेमस। यह कहानी है एक तवाइफ सुल्ताना की जिसकी एक छोटी सी ख्वाहिश उसके सामने इंसानियत के बहुत से चेहरे रख देती है। हमेशा की तरह मंटो के अफसानों की खास बात होती है उनकी सडन एंडिंग्स जो इंसान का दिल दहला के रख देती है। काली शलवार भी एक ऐसा ही अफसाना है। लिहाजा आपने ना इस कहानी को पूरा सुनना है। क्योंकि आखरी की जो दो स्टेटमेंट्स है ना सारी गेम उसमें ही छुपी हुई है। हम लोग फ्रांस काफका को पढ़ते हैं, जॉर्ज और को पढ़ते हैं। दोस्तकी को पढ़ते हैं। अगर मुझसे पूछा जाए कि उर्दू अदब में इंस्टॉल वर्ड्स का कोई
मुकाबला कर सकता है? तो मेरा जवाब होगा मंटो। मंटो की लिखाई में ऐसी हरारत, ऐसी जान है कि वो इंसान को जकड़ लेती है, पकड़ लेती है। उनकी कहानी के किरदार हमारे ही मुआशरे का हिस्सा होते हैं। वो शख्स, वो औरतें, वो तवाइफ, वो दलाल जिनके बारे में अक्सर लोग बात करने से घबराते हैं और शर्माते हैं। लेकिन मंटो को फिक्र नहीं थी कि दुनिया लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। वो तो हमारे सामने मुआशरे का वो पहलू लाना चाहते थे। जिनके बारे में लोग बात ही नहीं करना चाहते। सुताना भी हमारे मुआशरे का ऐसा ही एक किरदार है। ऐसी ही एक तवाइफ
है जिसकी कहानी आज मैं आपको सुनाऊंगा। लिहाजा अपनी स्टोरी का आगाज करते हैं। दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे उसके ग्राहक थे। इन गोरों से मिलने जुलने के बायस वो अंग्रेजी के 10-1 जुमले सीख गई थी। इनको वो आम गुफ्तगू में इस्तेमाल नहीं करती थी। लेकिन जब वह दिल्ली में आई और उसका कारोबार ना चला तो एक रोज उसने अपनी पड़ोसन तमंचा जान से कहा दिस लेफ वेरी बैड यानी यह जिंदगी बहुत बुरी है जबकि खाने को ही नहीं मिलता। अंबाला छावनी में इसका धंधा बहुत अच्छी तरह चलता था। छावनी के गोरे शराब पीकर इसके पास आ जाते थे और वह 3-4 घंटों में
8-10 गोरों को निपटाकर ₹200 पैदा कर लिया करती थी। यह गोरे उसके हम वतनों के मुकाबले में बहुत अच्छे थे। इसमें कोई शक नहीं कि वह ऐसी जुबान बोलते थे जिसका मतलब सुल्ताना की समझ में नहीं आता था। मगर इनकी जुबान से यह लाइल्मी इसके हक में बहुत अच्छी साबित होती थी। मगर यहां दिल्ली में वो जब से आई थी एक गोरा भी इसके यहां नहीं आया था। तीन महीने उसको हिंदुस्तान के शहर में रहते हुए हो गए थे। जहां इसने सुना था कि बड़े लाड साहब रहते हैं जो गर्मियों में शिमले जाते हैं। मगर सिर्फ छह आदमी इसके पास आए थे। सिर्फ छह यानी महीने में दो। और इन छह ग्राहकों से
इसने खुदा झूठ ना बुलवाए तो ₹18.5 वसूल किए थे। ₹3 से ज्यादा पर कोई मानता ही नहीं था। सुल्ताना ने इनमें से पांच आदमियों को अपना रेट ₹10 बताया था। मगर ताज्जुब की बात है कि इनमें से हर एक ने यही कहा। भाई हम ₹3 से एक कौड़ी ज्यादा ना देंगे। ना जाने क्या बात थी। इनमें से हर एक ने इसे सिर्फ ₹3 के काबिल ही समझा। चुनाचा जब छठा आया तो इसने खुद इससे कहा। देखो मैं ₹3 एक टाइम के लूंगी। इससे एक धेला तुम कम कहो, तो मैं ना लूंगी। अब तुम्हारी मर्जी हो तो रहो, वरना जाओ। छठे आदमी ने यह बात सुनकर तकरार ना की और इसके हाथ ठहर गया। जब दूसरे कमरे में दरवाजे
बंद करके वह अपना कोट उतारने लगा, तो सुल्ताना ने कहा, “लाइए ₹1 दूध का।” इसने ₹1 तो ना दिया, लेकिन नए बादशाह की चमकती हुई अठन्नी जेब में से निकाल कर इसको दे दी। और सुल्ताना ने भी चुपके से ले ली कि चलो जो आया है गनीमत है। ₹18.5 3 महीनों में ₹20 माहवार तो इस कोठे का किराया था, जिसको मालिक मकान अंग्रेजी जबान में फ्लैट कहता था। इस फ्लैट में ऐसा पाखाना था जिसमें जंजीर खींचने से सारी गंदगी पानी के जोर से एकदम नीचे नल में गायब हो जाती थी, और बड़ा शोर होता था। पहली दफा जब वह रफा-ए- हाजत के लिए इस पाखाने में गई, तो इसकी कमर में शिद्दत का दर्द हो रहा था।
फारिग होकर जब उठने लगी, तो इसने लटकी हुई जंजीर का सहारा ले लिया। उसने सोचा कि यह जंजीर इसलिए लगाई गई है कि उठते वक्त तकलीफ ना हो और सहारा मिल जाया करे। मगर जो ही उसने जंजीर पकड़ कर उठना चाहा ऊपर खटखट सी हुई और फिर एकदम पानी इस शोर के साथ बाहर निकला कि डर के मारे इसके मुंह से चीख निकल गई। खुदा बख्श दूसरे कमरे में अपना फोटोग्राफी का सामान दुरुस्त कर रहा था और एक साफ बोतल में हाइड्रोकोनैन डाल रहा था। इसने सुल्ताना की चीख सुनी। दौड़ कर वो बाहर निकला और सुल्ताना से पूछा क्या हुआ? यह चीख तुम्हारी थी। सुल्ताना का दिल धड़क रहा था। उसने कहा यह मुआ
पाखाना है क्या? बीच में यह रेलगाड़ियों की तरह जंजीर क्या लटका रखी है? मेरी कमर में दर्द था। मैंने कहा, चलो इसका सहारा ले लूंगी। पर इस मुई जंजीर को छेड़ना था कि वो धमाका हुआ कि मैं तुमसे क्या कहूं। खुदा बख्श और सुल्ताना का आपस में कैसे संबंध हुआ यह एक लंबी कहानी है। खुदा बख्श रावलपिंडी का था। इंटर पास करने के बाद उसने लारी चलाना सीखा। चुनाचा 4 बरस तक वो रावलपिंडी और कश्मीर के दरमियान लारी चलाने का काम करता रहा। इसके बाद कश्मीर में इसकी दोस्ती एक औरत से हो गई। उसको भगाकर वह लाहौर ले आया। लाहौर में क्योंकि उसको कोई काम ना मिला इसलिए इसने इस औरत
को पेशे पर बिठा दिया। दो-तीन बरस तक यह सिलसिला जारी रहा और वो औरत किसी और के साथ भाग गई। खुदा बख्श को मालूम हुआ कि वो अंबाला में है। वो इसकी तलाश में अंबाला आया जहां उसको सुल्ताना मिल गई। सुल्ताना ने इसको पसंद किया। चुनाचा दोनों का संबंध हो गया। खुदा बख्श के आने से एकदम सुल्ताना का कारोबार चमक उठा। औरत क्योंकि जईफुल एतकाद थी इसलिए इसने समझा कि खुदा बख्श बड़ा भाग्यवान है जिसके आने से इतनी तरक्की हो गई। चुनाचा इस खुश एतकादी ने खुदा बख्श की वकत उसकी नजरों में और बढ़ा दी। खुदा बख्श आदमी मेहनती था। सारा दिन हाथ पर हाथ धर कर बैठना पसंद नहीं करता
था। चुनाचा इसने एक फोटोग्राफर से दोस्ती पैदा की जो रेलवे स्टेशन के बाहर मिनट कैमरे से फोटो खींचा करता था। इसलिए इसने फोटो खींचना सीख लिया। फिर सुल्ताना से ₹60 लेकर कैमरा भी खरीद लिया। आहिस्ताआहिस्ता एक पर्दा बनवाया। दो कुर्सियां खरीदी और फोटो धोने का सब सामान लेकर उसने अदा अपना काम शुरू कर दिया। काम चल निकला। चुनाचा इसने थोड़ी ही देर के बाद अपना अड्डा अंबाला छावनी में कायम कर दिया। यहां वो गोरों के फोटो खींचता रहता। एक महीने के अंदर-अंदर उसकी छावनी के मुतद गोरों से वाकिफियत हो गई। चुनाचा वो सुल्ताना को वहीं ले गया। यहां छावनी में
खुदा बख्श के जरिए कई गोरे सुल्ताना के मुस्तकिल गाग बन गए और इसकी आमदनी पहले से दुगनी हो गई। सुल्ताना ने कानों के लिए बूंदे खरीदे। 5 तोले के आठ कंगनियां भी बनवा ली। 10-15 अच्छी-अच्छी साड़ियां भी जमा कर ली। घर में फर्नीचर वगैरह भी आ गया। किस्सा मुख्तसिर यह कि अंबाला छावनी में वो बड़ी खुशहाल थी। मगर एकाएकी ना जाने खुदा बख्श के दिल में क्या समाई कि उसने दिल्ली जाने की ठान ली। सुल्ताना इंकार कैसे करती। जब खुदा बख्श को अपने लिए बहुत मुबारक ख्याल करती थी। इसने खुशी-खुशी दिल्ली जाना कबूल कर लिया। बल्कि इसने यह भी सोचा कि इतने बड़े शहर
में जहां लाट साहब रहते हैं, इसका धंधा और भी अच्छा चलेगा। उसने जल्दी-जल्दी अपने घर का सामान बेचा और खुदा बख्श के साथ दिल्ली आ गई। यहां पहुंचकर खुदा बख्श ने ₹20 महावार पर एक छोटा सा फ्लैट लिया जिसमें वह दोनों रहने लगे। दुकान खोलते ही ग्राहक थोड़ी आते हैं। चुनाचा जब एक महीने तक सुल्ताना बेकार रही तो उसने यही सोचकर अपने दिल को तसल्ली दी। पर जब दो महीने गुजर गए और कोई आदमी उसके कोठे पर ना आया तो उसे बहुत तशवीश हुई। उसने खुदा बख्श से कहा क्या बात है खुदा बख्श? दो महीने आज पूरे हो गए हैं। किसी ने इधर का रुख भी नहीं किया। मानती हूं
आजकल बाजार बहुत मंदा है। पर इतना मंदा भी तो नहीं कि महीने भर में कोई शक्ल देखने भी ना आए। खुदा बख्श को भी यह बात बहुत अरसे से खटक रही थी। मगर वो खामोश था। पर जब सुल्ताना ने खुद बात छेड़ी तो उसने कहा मैं कई दिनों से इसकी बाबत सोच रहा हूं। एक बात समझ आती है वह यह कि जंग की वजह से लोग दूसरे धंधों में पड़कर इधर का रास्ता भूल गए हैं। या फिर यह हो सकता है कि वह इसके आगे कुछ कहने ही वाला था कि सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आवाज आई। खुदा बख्श और सुल्ताना दोनों इस आवाज की तरफ मुतवज्जा हुए। थोड़ी देर बाद दस्तक हुई। खुदा बख्श ने लपक कर दरवाजा खोला। एक आदमी
अंदर दाखिल हुआ। यह पहला ग्राहक था जिससे ₹3 में सौदा तय हुआ। इसके बाद पांच और आए यानी 3 महीने में छ जिनसे सुल्ताना ने सिर्फ ₹18.5 वसूल किए। ₹20 महावार तो फ्लैट के किराए में चले जाते थे। पानी का टैक्स और बिजली का बिल जुदा था। इसके अलावा घर के दूसरे खर्चे थे। खानापीना, कपड़े, लत्ते, दवा, दारू और आमदन कुछ भी नहीं थी। 5 1/2 3 महीने में आए थे। इसे आमदन तो नहीं कह सकते। सुल्ताना परेशान हो गई। 5 तोले की आठ कंगनियां जो इसने अंबाला में बनवाई थी आहिस्ताआहिस्ता बिक गई। आखिरी कंगनी की जब बारी आई तो उसने खुदा बख्श से कहा तुम मेरी सुनो और चलो वापस
अंबाला में। यहां क्या धरा है? हमें तो यह शहर रास नहीं आया। तुम्हारा काम भी वहां खूब चलता था। चलो वहीं चलते हैं। जो नुकसान हुआ इसको अपना सर सदका समझो। इस कंगनी को बेच कर आओ। मैं असबाब वगैरह बांधकर तैयार रखती हूं। आज रात की गाड़ी से यहां से चल देंगे। खुदा बख्श ने कंगनी सुल्ताना के हाथ से ले ली और कहा नहीं जानेमन अंबाला अब नहीं जाएंगे यहीं दिल्ली में रहकर कमाएंगे ये तुम्हारी चूड़ियां सब की सब यहीं वापस आएंगी अल्लाह पर भरोसा रखो वो बड़ा कार साज है यहां भी वो कोई ना कोई असबाब बना ही देगा सुल्ताना चुप हो रही चुनाचा आखिरी
कंगनी हाथ से उतर गई जब 5 महीने गुजर गए और आमदन खर्च के मुकाबले में चौथाई से भी बहुत कम रह गई तो सुल्ताना की परेशानी और ज्यादा बढ़ गई। खुदा बक्ष भी सारा दिन अब घर से गायब रहने लगा था। सारा दिन वो अपने सुनसान मकान में बैठी रहती। कभी छालियां काटती रहती, कभी अपने पुराने और फटे हुए कपड़ों को सीती रहती और कभी बाहर बालकोनी में आकर जंगले के साथ खड़ी हो जाती और सामने रेलवे शेड में साकेत और मुतहरिक इंजनों की तरफ घंटों बेमतलब देखती रहती। अंबाला छावनी में जब वह रहती थी तो स्टेशन के पास ही इसका मकान था। मगर वहां इसने कभी इन चीजों को ऐसी
नजरों से नहीं देखा था। अब तो कभी-कभी इसके दिमाग में यह भी ख्याल आता कि यह जो सामने रेल की पटरियों का जाल सा बिछा है, यह एक बहुत बड़ा चकला है। सुल्ताना को तो बाज औकात यह इंजन सेठ मालूम होते हैं जो कभी-कभी अंबाला में इसके यहां आया करते थे। फिर कभी-कभी जब वो किसी इंजन को आहिस्ता-आहिस्ता गाड़ियों की कतार के पास से गुजरता देखती तो इसे ऐसा महसूस होता कि कोई आदमी चकले के किसी बाजार में से ऊपर कोठों की तरफ देखता जा रहा है। खुदा बखश से इसने बारह कहा देखो मेरे हाल पर रहम करो यहां घर में रहा करो मैं सारा दिन यहां बीमारों की तरह पड़ी रहती हूं मगर
इसने हर बार सुल्ताना से यह कहकर इसकी तशफी कर दी जानेमन मैं बाहर कुछ कमाने की फिक्र कर रहा हूं अल्लाह ने चाहा तो चंद दिनों में ही बेड़ा पार हो जाएगा पूरे 5 महीने हो गए थे मगर अभी तक ना सुल्ताना का बेड़ा पार हुआ था ना खुदा बख्श का मुहर्रम का महीना सर पर आ रहा था। मगर सुल्ताना के पास काले कपड़े बनवाने के लिए कुछ भी ना था। मुख्तार ने लेडी हेमिल्टन की एक नई वजा की कमीज बनवाई थी। जिसकी आस्तीने काली जॉर्जेट की थी। इसके साथ मैच करने के लिए इसके पास काली साटन की सलवार थी जो काजल की तरह चमकती थी। घर बिल्कुल खाली था। खुदा बख्श हस््ब
मामूल बाहर था। देर तक वो दरी पर गांव तकिया सर के नीचे रखकर लेटी रही। पर जब इसकी गर्दन ऊंचाई के पास अकड़ सी गई तो उठकर बाहर बालकनी में चली गई ताकि गम अफजा ख्यालात को वह अपने दिमाग में से निकाल दे। शाम का वक्त था। छिड़काव हो चुका था। बाजार में ऐसे आदमी चलने शुरू हो गए थे जो ताक झांक करने के बाद चुपचाप घरों का रुख करते हैं। ऐसे ही एक आदमी ने गर्दन ऊंची करके सुल्ताना की तरफ देखा। सुल्ताना मुस्कुरा दी और उसको भूल गई। क्योंकि अब सामने पटरियों पर एक इंजन नमूदार हो गया था। इस आदमी ने इधर-उधर देखकर एक लतीफ इशारे से पूछा, किधर से आऊं? सुल्ताना ने
इसे रास्ता बता दिया। वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा मगर फिर बड़ी फुर्ती से ऊपर चला आया। सुल्ताना ने इसे दरी पर बिठाया। जब वो बैठ गया तो इसने सिलसिला गुफ्तगू शुरू करने के लिए कहा। आप ऊपर आते डर रहे थे? वो आदमी यह सुनकर मुस्कुराया। तुम्हें कैसे मालूम हुआ? डरने की बात ही क्या थी? इस पर सुल्ताना ने कहा, “यह मैंने इसलिए कहा कि आप देर तक वहीं खड़े रहे और फिर कुछ सोच कर इधर आए। वह यह सुनकर फिर मुस्कुराया। तुम्हें गलतफहमी हुई है। मैं तुम्हारे ऊपर वाले फ्लैट की तरफ देख रहा था। वहां कोई औरत खड़ी एक मर्द को ठगा दिखा रही थी। मुझे यह मंजर पसंद आया। फिर
बालकनी में सब्स बल्ब रोशन हुआ, तो मैं कुछ देर के लिए ठहर गया। यह कहकर इसने कमरे का जायजा लेना शुरू कर दिया। फिर वह उठ खड़ा हुआ। सुल्ताना ने पूछा, “आप जा रहे हैं? इस आदमी ने जवाब दिया, नहीं, मैं तुम्हारे इस मकान को देखना चाहता हूं। चलो मुझे तमाम कमरे दिखाओ। सुल्ताना ने इसको तीनों कमरे एक-एक करके दिखा दिए। इस आदमी ने बिल्कुल खामोशी से इन कमरों का मुयना किया। जब वो दोनों फिर इसी कमरे में आ गए जहां पहले बैठे थे तो इस आदमी ने कहा, “मेरा नाम शंकर है।” शंकर कुछ इस तरह दरी पर बैठा था कि मालूम होता था कि शंकर की बजाय सुल्ताना ग्राहक है। इस एहसास ने
सुल्ताना को कदरे परेशान कर दिया। चुनाचा इसने शंकर से कहा फरमाइए शंकर बैठा था यह सुनकर लेट गया मैं क्या फरमाऊं कुछ तुम ही फरमाओ बुलाया तुम ही ने है मुझे जब सुल्ताना कुछ ना बोली तो वो उठ बैठा लो अब मुझसे सुनो जो कुछ तुमने समझा गलत है मैं इन लोगों में से नहीं हूं जो कुछ देकर जाते हैं। डॉक्टरों की तरह मेरी भी फीस है। मुझे जब बुलाया जाए तो फीस देना पड़ती है। सुल्ताना यह सुनकर चकरा गई। मगर इसके बावजूद इसे बेख्तियार हंसी आ गई। आप काम क्या करते हैं? शंकर ने जवाब दिया, यही जो तुम लोग करते हो? तुम क्या करती हो? मैं मैं कुछ भी नहीं करती। मैं भी कुछ नहीं
करता। सुल्ताना ने भुनाकर कहा, “यह तो कोई बात ना हुई। आप कुछ ना कुछ तो जरूर करते होंगे।” शंकर ने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया। तुम भी कुछ ना कुछ जरूर करती होगी। झक मारती हो। मैं भी झक मारता हूं। मैं हाजिर हूं मगर झक मारने के लिए मैं दाम कभी नहीं दिया करता। होश की दवा करो। यह लंगरखाना नहीं और मैं भी वालंटियर नहीं हूं। सुल्ताना यहां रुक गई। इसने पूछा यह वालंटियर कौन होते हैं? शंकर ने जवाब दिया उल्लू के पट्ठे। मैं भी उल्लू की पट्ठी नहीं। मगर वो आदमी खुदा बख्श जो तुम्हारे साथ रहता है जरूर उल्लू का पट्ठा है। क्यों? इसलिए कि वह कई दिनों से एक ऐसे
खुदा रसीदा फकीर के पास अपनी किस्मत खुलवाने की खातिर जा रहा है जिसकी अपनी किस्मत जंग लगे ताले की तरह बंद है। यह कहकर शंकर हंसा। इस पर सुल्ताना ने कहा, तुम हिंदू हो इसलिए हमारे इन बुजुर्गों का मजाक उड़ाते हो। शंकर मुस्कुराया। ऐसी जगहों पर हिंदू मुस्लिम सवाल पैदा नहीं हुआ करते। बड़े-बड़े पंडित और मौलवी अगर यहां आए तो वह भी शरीफ आदमी बन जाए। जाने तुम क्या ऊटपटांग बातें करते हो। बोलो रहोगे? इसी शर्त पर जो पहले बता चुका हूं। सुल्ताना उठ खड़ी हुई तो जाओ रास्ता पकड़ो। शंकर चला गया और सुल्ताना काले लिबास को भूलकर देर तक इसके मुताल्लिक
सोचती रही। इस आदमी की बातों ने उसके दुख को बहुत हल्का कर दिया था। अगर वह अंबाले में आया होता जहां कि वो खुशहाल थी तो इसने किसी और ही रंग में इस आदमी को देखा होता। मगर यहां क्योंकि वो बहुत उदास रहती थी। इसीलिए शंकर की बातें इसे पसंद आई। शाम को जब खुदा बख्श आया तो सुल्ताना ने इससे पूछा तुम आज सारा दिन किधर गायब रहे हो? खुदा बख्श थक कर चूरचूर हो रहा था। कहने लगा पुराने किले के पास से आ रहा हूं। वहां एक बुजुर्ग कुछ दिनों से ठहरे हुए हैं। इन्हीं के पास हर रोज जाता हूं कि हमारे दिन फिर जाएं। सुल्ताना के दिमाग में मुहर्रम मनाने का
ख्याल समाया हुआ था। खुदा बख्श से रोनी आवाज में कहने लगी। सारा सारा दिन बाहर गायब रहते हो। मैं यहां पिंजरे में कैद रहती हूं। ना कहीं जा सकती हूं, ना आ सकती हूं। मुहर्रम सर पर आ गया है। कुछ तुमने इसकी भी फिक्र की कि मुझे काले कपड़े चाहिए। घर में फूटी कौड़ी तक नहीं। कंगनियां थी सो वो एक-एक करके बिक गई। अब तुम ही बताओ क्या होगा? यूं फकीरों के पीछे कब तक मारे-मारे फिरोगे? मेरी सुनो। तुम अपना काम शुरू कर दो। कुछ तो सहारा हो ही जाएगा। तुम खुदा के लिए कुछ करो। चोरी करो या डाका मारो पर मुझे एक शलवार का कपड़ा जरूर ला दो। मेरे पास सफेद बोस्की
की कमीज पड़ी है। इसको मैं रंगवा लूंगी। एक नया दुपट्टा भी मेरे पास मौजूद है। वही जो तुमने मुझे दिवाली पर लाकर दिया था। यह भी कमीज के साथ ही काला रंगवा लिया जाएगा। एक सिर्फ सलवार की कसर है। सो वो तुम किसी ना किसी तरह पैदा कर दो। देखो तुम्हें मेरी जान की कसम किसी ना किसी तरह जरूर ला दो। अब तुम ख्वामखा जोर दिए चली जा रही हो। मैं कहां से लाऊंगा? अफीम खाने के लिए तो मेरे पास पैसे नहीं। कुछ भी करो मगर मुझे 4 1/2 गज काली साटन ला दो। अब तुम कहती हो तो मैं कोई हीला करूंगा। यह कहकर खुदा बख्श उठा। सुबह हुई। खुदा बख्श पुराने किले वाले फकीर के पास चला गया और
सुल्ताना अकेली रह गई। कुछ देर लेटी रही। कुछ देर सोई रही। इधर-उधर कमरों में टहलती रही। दोपहर का खाना खाने के बाद इसने अपना सफेद नैनों का दुपट्टा और सफेद बोस्की की कमीज निकाली और नीचे लांड्री वाले को रंगने के लिए दे आई। अब शाम हो गई थी। बत्तियां रोशन हो रही थी। दफतन इसे शंकर नजर आया। मकान के नीचे पहुंचकर इसने गर्दन ऊंची की और सुल्ताना की तरफ देखकर मुस्कुरा दिया। सुल्ताना ने गैर इरादी तौर पर हाथ का इशारा किया और उसे ऊपर बुला लिया। जब शंकर ऊपर आ गया तो सुल्ताना बहुत परेशान हुई कि इससे क्या कहे। दरअसल इसने ऐसे ही बिना सोचे समझे इसे इशारा कर दिया
था। जब सुल्ताना ने देर तक इससे कोई बात ना की तो उसने कहा तुम मुझे 100 दफा बुला सकती हो और 100 दफा ही कह सकती हो कि चले जाओ। मैं ऐसी बातों पर कभी नाराज नहीं हुआ करता। सुल्ताना शशोपंज में गिरफ्तार हो गई। कहने लगी नहीं बैठो तुम्हें जाने को कौन कहता है? तो मेरी शर्तें तुम्हें मंजूर हैं। कैसी शर्तें? सुल्ताना ने हंसकर कहा क्या निकाह कर रहे हो मुझसे? निकाह और शादी कैसी? ना तुम उम्र भर में किसी से निकाह करोगी ना मैं। यह रस्में हम लोगों के लिए नहीं है। छोड़ो इन फजूलियात को। कोई काम की बात करो। सुल्ताना जहनी तौर पर अब शंकर को कबूल कर चुकी थी। कहने
लगी साफ-साफ कहो तुम मुझसे क्या चाहते हो जो दूसरे चाहते हैं। शंकर उठकर बैठ गया। सुल्ताना ने थोड़ी देर तक शंकर की इस बात को समझने की कोशिश की। फिर कहा मैं समझ गई तो कहो क्या इरादा है? तुम जीते मैं हारी। पर मैं कहती हूं आज तक किसी ने ऐसी बात कबूल ना की होगी। शंकर और सुल्ताना दली वाले कमरे में वापस आए तो दोनों हंस रहे थे। ना जाने किस बात पर। जब शंकर जाने लगा तो सुल्ताना ने कहा शंकर मेरी एक बात मानोगे शंकर ने जवाबन कहा पहले बात बताओ सुल्ताना कुछ जीप सी गई तुम कहोगे कि मैं दाम वसूल करना चाहती हूं सुल्ताना ने जुर्रत से काम लेकर कहा बात
यह है कि मुहर्रम आ रहा है और मेरे पास इतने पैसे नहीं कि मैं काली शलवार बना सकूं। यहां के सारे दुखड़े तो तुम मुझसे सुन चुके हो। कमीज और दुपट्टा मेरे पास मौजूद था जो मैंने आज रगवाने के लिए दे दिया है। शंकर ने यह सुनकर कहा तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें कुछ रुपए दे दूं जो तुम यह काली शलवार बनवा सको। सुल्ताना ने फौरन ही कहा नहीं मेरा मतलब यह है कि अगर हो सके तो मुझे काली शलवार ला दो। शंकर मुस्कुराया। मेरी जेब में तो इत्तेफाक ही से कभी कुछ होता है। बहरहाल मैं कोशिश करूंगा। मुहर्रम की पहली तारीख को तुम्हें यह शलवार मिल जाएगी। ले बस अब खुश हो गई।
सुल्ताना के बूंदों की तरफ देखकर शंकर ने पूछा, क्या यह बूंदे तुम मुझे दे सकती हो? सुल्ताना ने हंसकर कहा, तुम इन्हें क्या करोगे? चांदी के मामूली बूंदे हैं। ज्यादा से ज्यादा ₹5 के होंगे। इस पर शंकर ने कहा, मैंने तुमसे बूंदे मांगे हैं। इनकी कीमत नहीं पूछी। बोलो, देती हो? यह कहकर सुल्ताना ने बूंदे उतारकर शंकर को दे दिए। उसे अफसोस हुआ मगर शंकर जा चुका था। सुताना को कतन यकीन नहीं था कि शंकर अपना वादा पूरा करेगा। मगर आठ रोज के बाद मुहर्रम की पहली तारीख को सुबह 9:00 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। सुल्ताना ने दरवाजा खोला तो शंकर खड़ा था। अखबार में लिपटी
हुई चीज इसने सुताना को दी और कहा साटन की काली शलवार है। देख लेना शायद लंबी हो। अब मैं चलता हूं। शंकर शलवार देकर चला गया और कोई बात इसने सुल्ताना से ना कही। सुल्ताना ने कागज खोला। साटन की काली शलवार थी। ऐसी ही जैसी कि वह मुख्तार के पास देखकर आई थी। सुल्ताना बहुत खुश हुई। बूंदों और इस सौदे का जो अफसोस इसे हुआ था इस शलवार ने और शंकर की वादा वफाई ने दूर कर दिया। दोपहर को वो नीचे लांड्री वाले से अपनी रंगी हुई कमीज और दुपट्टा लेकर आई। तीनों काले कपड़े इसने जब पहन लिए तो दरवाजे पर दस्तक हुई। सुल्ताना ने दरवाजा खोला तो मुख्तार अंदर दाखिल हुई। उसने
सुल्ताना के तीनों कपड़ों की तरफ देखा और कहा कमीज और दुपट्टा तोंगा हुआ मालूम होता है पर यह शलवार नहीं है। कब बनवाई? सुल्ताना ने जवाब दिया आज ही दर्जी लाया है। यह कहते हुए इसकी नजरें मुख्तार के कानों पर पड़ी। यह बूंदे तुमने कहां से लिए? मुख्तार ने जवाब दिया। आज ही मंगवाए हैं। इसके बाद दोनों को थोड़ी देर तक खामोश रहना पड़ा। देखा दोस्तों हमेशा की तरह मंटों की कहानियों की सडन एंडिंग्स इंसान को झंझोड़ के रख देती हैं। काली शलवार भी ऐसी ही एक कहानी है। अब आपने एक काम करना है कि आपने सुल्ताना, खुदा बख्श और शंकर के कैरेक्टर्स का एनालिसिस करना
है। हर काम मैं आपको पूरा करके नहीं दूंगा। आपने सोचना है कि इन तीनों किरदारों के जरिए मंटो हमें क्या बताना चाह रहे हैं? क्या सिखाना चाह रहे हैं? सुल्ताना की एक छोटी सी ख्वाहिश कैसे उसके सामने इंसान की नफ्सियात खोल के रख देती है। इसके बारे में ना सिर्फ आपने सोचना है बल्कि कमेंट सेक्शन में भी मुझे फीडबैक देना है। लेट्स हैव अ हेल्दी डिस्कशन ऑन दिस। देखिए बुकब उर्दू अदब में दो ऐसे राइटर्स हैं, दो ऐसे ऑथर्स हैं जो एब्सोल्यूट मैडनेस है। एक है मंटो और दूसरे हैं द जीनियस द मास्टरमाइंड द लेजेंड्री गुलाम अब्बास। गुलाम अब्बास की
तो जो स्टोरीज है वो इंसान के वजूद को हिला के रख देती है। उनकी कहानियां भी कभी मैं आपको पढ़ के जरूर सुनाऊंगा। फिलहाल आप सुल्तानना और काली शलवार की दुनिया में थोड़ी देर के लिए खो